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Monday, July 27, 2020

पलक आस संजोई

बैठ राधिका यमुना तीरे 
श्याम विरह में रोई।
भूल गए मोहे सांवरिया
सोच रही है खोई।

पनघट सूने सूनी गलियाँ
चुप हाथों के कँगना।
मुरलीधर ब्रज छोड़ गए हैं
सूने करके अँगना।
पंथ निहारूँ आस लिए मैं
बीज याद के बोई।
बैठ राधिका यमुना तीरे 
श्याम विरह में रोई।

कनक धूप में कोमल काया
मोहन झुलसी जाती।
विरह वेदना समझे बदली।
तन को आ सहलाती।
मधुवन में श्रृंगार किए नित
पलक आस संजोई।
बैठ राधिका यमुना तीरे 
श्याम विरह में रोई।

व्याकुल नैना खोज रहे हैं
भूला गोकुल ग्वाला।
सावन के हिंडोले सूने
सूना मन का आला।
पानी भरती खाली करती
मटकी फिर-फिर धोई।
बैठ राधिका यमुना तीरे
श्याम विरह में रोई।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, July 22, 2020

हृदय पीर की धधकी ज्वाला

सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
छायादार विटप मिटा रहा
मानव पिए स्वार्थ की हाला।

भूकंप,बाढ़,काल खड़ा है
प्रलय सुनाए अपनी आहट।
तरुवर मिटते फटती धरती
बढ़ती जाती मन अकुलाहट।
रोज नया रोग जन्म लेता
कैसा है ये गड़बड़ झाला?
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।

जीव-जंतु की जीवनदात्री
वसुधा ही सब में प्राण भरे।
पाषाण हृदय के मानव ही
माँ को आभूषण हीन करे।
सोच रही है आज धरा भी
दिया दूध का जिसको प्याला।
करते हैं विद्रोह वही क्यों?
उम्मीदों ने जिनको पाला।
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।

कुंठित मन में मैल भरा है
जग अंगारों के मुख बैठा।
मानव मानवता का बैरी
रहता है हरदम ही ऐंठा।
ऊपर से उजियारा दिखता
भीतर मन का है अति काला।
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Friday, July 10, 2020

खेल नियति के

अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
पीर लखन से कह न पाए
विरह हृदय को भेद रहा था।

राम राम हा राम पुकारे
 नयन सिया के नीर झरे थे 
रावण युद्ध किया अति भारी
पंख विलग हो भूमि गिरे थे।
गिरा जटायू घायल होकर
राम सिया जय बोल रहा था।
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।

बैठ वाटिका में वैदेही 
राम दरस को तड़प रही थी।
विरह वेदना व्याकुल करती
नियति से प्रश्न पूछ रही थी।
गिन गिन बीते दिन औ रातें
मन का पंछी डोल रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।

नीर भरे नयनों को लेकर
पंथ निहारे उर्मिल रानी।
दीप दरस के रोज जलाती
बहे आँख से झर-झर पानी।
वीर भरत कुटिया में बैठा
राम खड़ाऊ पूज रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।

राम सिया के जीवन में भी
प्रश्न अनेकों रोज खड़े थे।
मानव मन दुविधा में उलझे
प्रभु पे कैसे कष्ट पड़े थे।
खेल नियति के प्रभु भी झेले
 सुख-दुख जीवन संग रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

चक्रव्यूह का भेद गहरा

धूप भी चुभने लगी है
साँझ भी चुपचाप जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।

समय चक्र कैसा चला है
चाँद सितारे भी चुप है।
चाँदनी झाँकें गली में
अँधेरा घनघोर घुप्प है।
व्याधियाँ हँसने लगी हैं
सो रहे दिन रात जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।

मौत ताडंव आज देख
आस भी धूमिल हुई है।
होती आज मौन गलियाँ
कैसी ये चुभी सुई है।
मरी हुई मानवता के 
नींद तज अहसास जागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।

चक्रव्यूह-सा भेद गहरा
बीच जीवन डोलता है।
राह से कंटक मिटे सब
भाव मनके बोलता है।
मुस्कुराएँ लोग फिर से
तोड़ ये कमजोर धागे।
मौन हुए इन रास्तों पे
बिखरते सपने अभागे।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

भोर सुहानी (बालगीत)


उजियारा पूरब से आए
भँवरा गुनगुन गाता है।
सोने के रथ बैठ सवारी
सूरज हँसता आता है।

शीतल ठंडी भोर सुहानी
चहक-चहक चिड़ियाँ चहकीं।
पुरवाई के झोंके लेकर
कुंज-कुंज कलियाँ महकीं।
ताल तलैया पनघट गूँजे
मुर्गा बाँग लगाता है।
उजियारा पूरब ......

ओस चमकती मोती जैसी
धरती पे किरणें बिखरीं।
चमक सुनहरी जग में फैली
हरियाली चूनर निखरी।
अब तो जागो आलस छोड़ो
दिन भी निकला जाता है।
उजियारा पूरब से ....

बस्ता लेकर शाला जाते
नन्हें बाल सलोने जब।
आँगन में दादी भी आकर
माखन लगी बिलोने तब।
बारिश में सब दफ्तर जाते
लेकर अपना छाता हैं।
उजियारा पूरब से.....
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Monday, July 6, 2020

प्रलय का आरंभ

क्षण भर में ही काट दिया 
वृक्ष खड़ा था एक हरा
सीमेंटी ढांचा गढ़ने के लिए
ये कैसा क्रूर प्रहार किया

क्यों अनदेखी कर रहा मानव
प्रलय के आरंभ को
हरित धरा को वंश मिटाकर
जीवन में घोल रहा विष को

क्रोध मचाती प्रकृति से
क्यों मूँद रखी अपनी आँखें
जिन पेड़ों की छाया में खेले
काट रहे वो ही शाखें

हर तरफ मची त्राहि-त्राहि
हर तरफ से विपदा ने घेरा
मंदमति इस मानव का
दिखता है रोज नया चेहरा

स्वार्थ हुआ जीवन पे हावी
चला रहा वृक्षों पर आरी
पर्यावरण की क्षति देखकर
मानवता व्याकुल हो हारी

सुलग उठी है आज धरा भी
प्रचंड सूर्य की ज्वाला में
छायादार वृक्षों को मिटा रहा
इंसान दौलत की हाला में

नशा चढ़ा ऐसा शौहरत का
स्वार्थ बन गई बीमारी 
इंसानी करतूतों से उपजी
अभिशाप बन गई महामारी

***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, July 5, 2020

आह धरा की

कटते तरुवर बढ़ती गर्मी
धरती हो रही बीमार।
क्रोधाग्नि से भरी प्रकृति
कैसे सहे अत्याचार।

हरियाली को आज मिटाकर
फल रहा कंक्रीट जंगल।
बंजर होती आज धरा फिर
करती सभी का अमंगल।
अपनी करनी से ही मानव
जीवन पे करता प्रहार 
कटते तरुवर ....


मौसम भी अब रूठा-रूठा
कहीं भूकंप कहीं बाढ़।
करनी का फल दुनिया भुगते
समस्या बनी खड़ी ताड।
आह धरा की आज लगी है,
मानव दिख रहा लाचार।
कटते तरुवर ....

आज प्रलय की आशंका ने
सबके मन को है घेरा।
 अपनी करनी कभी न बदले
हो चाहे घना अँधेरा।
मचा मौत का तांडव हर पल
हो रहा जीवन संहार।
कटते तरुवर....
***अनुराधा चौहान 'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार