अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
पीर लखन से कह न पाए
विरह हृदय को भेद रहा था।
राम राम हा राम पुकारे
नयन सिया के नीर झरे थे
रावण युद्ध किया अति भारी
पंख विलग हो भूमि गिरे थे।
गिरा जटायू घायल होकर
राम सिया जय बोल रहा था।
नेत्र प्रवाहित नदिया अविरल
नेह हृदय कुछ बोल रहा था।
बैठ वाटिका में वैदेही
राम दरस को तड़प रही थी।
विरह वेदना व्याकुल करती
नियति से प्रश्न पूछ रही थी।
गिन गिन बीते दिन औ रातें
मन का पंछी डोल रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
नीर भरे नयनों को लेकर
पंथ निहारे उर्मिल रानी।
दीप दरस के रोज जलाती
बहे आँख से झर-झर पानी।
वीर भरत कुटिया में बैठा
नीर भरे नयनों को लेकर
पंथ निहारे उर्मिल रानी।
दीप दरस के रोज जलाती
बहे आँख से झर-झर पानी।
वीर भरत कुटिया में बैठा
राम खड़ाऊ पूज रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
भावों के पट खोल रहा था।
राम सिया के जीवन में भी
प्रश्न अनेकों रोज खड़े थे।
मानव मन दुविधा में उलझे
प्रभु पे कैसे कष्ट पड़े थे।
खेल नियति के प्रभु भी झेले
सुख-दुख जीवन संग रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
प्रश्न अनेकों रोज खड़े थे।
मानव मन दुविधा में उलझे
प्रभु पे कैसे कष्ट पड़े थे।
खेल नियति के प्रभु भी झेले
सुख-दुख जीवन संग रहा था।
अंतर्मन में बहता झरना
भावों के पट खोल रहा था।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
बहुत अच्छी पोस्ट है बहुत खूबसूती से आपने शब्दों का प्रयोग किया है बहुत खूब
ReplyDeleteहाल ही में मैंने ब्लॉगर ज्वाइन किया है जिसमें कुछ पोस्ट डाले है आपसे निवेदन है कि आप हमारे ब्लॉग में आए और हमें सही दिशा नर्देश दे
https://shrikrishna444.blogspot.com/?m=1
धन्यवाद
जी हार्दिक आभार
Deleteलाज़बाब सृजन अनुराधा जी।
ReplyDeleteधन्यवाद दी
Delete