ज़िंदगी को कोई यूँ लानत न दो,
जन्मदाता पिता की अमानत है यह।
खून से सींचकर माँ पाले इसे,
रात भर जागकर वो संभाले इसे।
दर्द सहकर भी दुख तुम पर आने न दे,
भूख सहकर हर घड़ी पेट तेरा भरें।
लड़खड़ाए कदम जो कभी गिरने न दें,
तुम सदा खुश रहो बस दुआ यह करें।
उम्र थोड़ी बढ़ी होश खोने लगे,
द्वेष के बीज हृदय में बोने लगे।
ताक पर जा रखे जो मिले संस्कार,
भूले माता-पिता भूले अपनों का प्यार।
ठेस थोड़ी लगी दोषी दुनिया बनी,
जीत की चाह में राह उल्टी चुनी।
हार से सीख लेना जरूरी नहीं,
बात समझी नहीं जो सबने कही।
ओढ़ अवसाद की चादर छुपने लगे,
ज़िंदगी को बद्दुआ समझने लगे।
भूले कैसे आसान नहीं ज़िंदगी,
कर्म से ही सदा महकती ज़िंदगी।
एक पल में मिटा इसको तुम सो गए
ज़ख्म नासूर से अपनों को दे गए
इतनी सस्ती नहीं जो मिली ज़िंदगी
कितनी कड़ियाँ जुड़ी तो बनी ज़िंदगी।
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार