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Thursday, February 10, 2022

ज़िंदगी सस्ती नहीं


 ज़िंदगी को कोई यूँ लानत न दो,
जन्मदाता पिता की अमानत है यह।
खून से सींचकर माँ पाले इसे,
 रात भर जागकर वो संभाले इसे।

दर्द सहकर भी दुख तुम पर आने न दे,
भूख सहकर हर घड़ी पेट तेरा भरें।
लड़खड़ाए कदम जो कभी गिरने न दें,
तुम सदा खुश रहो बस दुआ यह करें।

उम्र थोड़ी बढ़ी होश खोने लगे,
द्वेष के बीज हृदय में बोने लगे।
ताक पर जा रखे जो मिले संस्कार,
भूले माता-पिता भूले अपनों का प्यार।

ठेस थोड़ी लगी दोषी दुनिया बनी,
जीत की चाह में राह उल्टी चुनी।
हार से सीख लेना जरूरी नहीं,
बात समझी नहीं जो सबने कही।

ओढ़ अवसाद की चादर छुपने लगे,
ज़िंदगी को बद्दुआ समझने लगे।
भूले कैसे आसान नहीं ज़िंदगी,
कर्म से ही सदा महकती ज़िंदगी।

एक पल में मिटा इसको तुम सो गए
ज़ख्म नासूर से अपनों को दे गए
इतनी सस्ती नहीं जो मिली ज़िंदगी
कितनी कड़ियाँ जुड़ी तो बनी ज़िंदगी।

©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार


भाव की बिखरी कड़ी


शब्द के जाले उलझकर
भाव की बिखरी कड़ी।
लेखनी फिर मूक होकर
बीनती बिखरी लड़ी।

कौन कोने जा छुपे हैं
वर्ण सारे रूठकर।
बुन रही हूँ बैठ माला
पुष्प सम फिर गूँथकर।
टूटता हर बार धागा
भावना की ले झड़ी।
शब्द के जाले...

लेखनी की नींद गहरी
आज थककर सो रही।
गीत आहत से पड़े सब
प्रीत सपने बो रही।
भाव ने क्रंदन मचाया
खिन्न कविता रो पड़ी।
शब्द के जाले...

मौन मन में मूक दर्शक
आज रस सारे बने।
रंग भी बेरंग होकर
बात पर अपनी तने।
भावनाएं सोचती फिर
राग छलके किस घड़ी।
शब्द के जाले...
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार