काल भीषण रूप धरकर
आज धरती पे रुका।
मौत का तांडव मचा फिर
दंड से मानव ठुका।
हो गई जहरी हवा अब
बाँध चले मुखपट्टी।
पीर ये कैसे भुलाएं
दे रही याद खट्टी।
ले रहा प्रभु जब परीक्षा
देख लाठी क्यों लुका।
काल भीषण.....
छोड़ दो झगड़े पुराने
आज मानवता कहे।
कष्ट के इन बादलों को
एक जुट होकर सहे।
सामने सच को खड़ा कर
जो कहीं पीछे दुका।
काल भीषण.....
काम सारे ही गलत कर
मौत की चौखट खड़े।
नोंच आभूषण धरा के
शूल ही पथ में जड़े।
रो रही हैं बेड़ियाँ अब
मस्त हाथी जा चुका।
काल भीषण.....
©®अनुराधा चौहान'सुधी' ✍️
चित्र गूगल से साभार
काम सारे ही गलत कर
ReplyDeleteमौत की चौखट खड़े।
नोंच आभूषण धरा के
शूल ही पथ में जड़े।
रो रही हैं बेड़ियाँ अब
मस्त हाथी जा चुका।
काल भीषण.....
खुद के कर्म ही हैं जो इंसान भुगत रहा है । समसामयिक रचना ।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 13-05-2021को चर्चा – 4,064 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
हार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteवाह।
ReplyDeleteहार्दिक आभार शिवम् जी।
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" ( 3027...सकारात्मक ख़बर 2-DG (2-deoxy-D-glucose)) पर गुरुवार 13 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteप्यारा गीत ।हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं
ReplyDeleteछोड़ दो झगड़े पुराने
ReplyDeleteआज मानवता कहे।
कष्ट के इन बादलों को
एक जुट होकर सहे।
सामने सच को खड़ा कर
जो कहीं पीछे दुका।
काल भीषण.....बहुत खूब
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteप्रभावशाली समसामयिक रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteयथार्थ पर चोट करती उत्कृष्ट रचना । सादर शुभकामनाएं अनुराधा जी ।
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