एक रात एक कली खिली
भोर हुई तो फूल बनी
यौवन की दहलीज पर आकर
किसी के घर का नूर बनी
बनी किसी के गले का हार
चेहरे की मुस्कान बनी
भूल गई दर्द वो अपना
सबके दर्द की दवा बनी
पायल,बिछिया,बिंदी,महावर
जीवन का श्रृंँगार बने
वात्सल्य भरा हृदय लेकर
वंश बेल को लगी सींचने
सबकी खुशियांँ चुनते चुनते
अपनी उम्र को भूल गई
छुट गया साथ साथी का
अपने दम पर खड़ी रही
वक़्त बदला,लोग बदले
पर उसकी मुस्कान न बदली
आंँखों में छिपा बहुत कुछ
पर उसकी पहचान न बदली
बालों में चांँदी सी चमक
पायल की कम होती खनक
बुझने लगी मुस्कान उसकी
मुख फेरती संतान उसकी
कल तक जो गोदी में पला था
बेटा आज दूर खड़ा था
आंँखों में छलकने लगे थे आंँसू
जिनको सबसे लगीे छुपाने
बड़े चाव से जो घर था सजाया
उस घर में पसंद नहीं उसका साया
माँ थी अपने जिगर के टुकड़े की
अब उसी की नौकरानी बन गई
फिर भी कोई गिला नहीं
बेटा फिर भी बुरा नहीं
देती रही दिन-रात दुआएंँ
बेटे की बढ़ती रहें खुशियांँ
पर आंँखों पर पट्टी बंधी थी
माँ की तकलीफ़ कहाँ दिखती थी
सबसे बड़ा बोझ थी सिर पर
कब उतरेगा फिक्र यही थी
छोड़ दिया एक दिन बेबस
वृद्धाश्रम में जाकर उसने
रोती रही बेटे को पकड़ कर
पर उसने न देखा पलट कर
कैसा यह कलयुग का प्राणी
जिसने माँ की कदर न जानी
जब तक जरूरत,तब तक मा-ँबाप हैं
चलना सीखा तो वो बेकार हैं
जिस माँ की मुस्कान थी प्यारी
देदी उसी को दर्द की बीमारी
क्यों भूलते यह दुनियांँ गोल है
जो बोओगे उससे मिले दूना मोल है
***अनुराधा चौहान***