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Friday, December 28, 2018

साल बदलते रहते हैं

वक्त भागता रहता है
बिना रुके अपनी रफ्तार से
दिन आते हैं दिन जाते हैं
साल बदलते रहते है
तारीख बदलती रहती है
पर ज़िंदगी में नया क्या होता है
यह सफर तो ज़िंदगी का
जहां कुछ नए रिश्ते मिलते हैं
कुछ रिश्ते दूर हो जाते हैं
अपनी यादों की सौगात देकर
बदलती तो ज़िंदगी है
जहां हर दिन कुछ न कुछ
नए अनुभव देखने मिलते है
नया कुछ सीखने मिलता है
नया साल जब आता है
पुराना साल इतिहास बन जाता है
यह सफर तो चलता ही है
पर साथ यह सीख भी दे जाता है
वक्त नहीं रुकता किसी के लिए
***अनुराधा चौहान***

Saturday, December 22, 2018

कैसे हो रहे हैं अब लोग

देख तेरे संसार में प्रभू
कैसे हो रहे हैं अब लोग 
जिनको न रिश्तों की फ़िक्र है
न अपनों का कोई जिक्र है
कैसा आया है यह दौर
कैसे हो रहे हैं अब लोग
संवेदनाएं दम तोड़ती
मतलबपरस्ती दिल में बसती
इंसानियत का नहीं कोई मोल
कैसे हो रहे हैं अब लोग
दौलत वाले दौलत को मरते
भूखे दाने-दाने को तरसते
किसान बिचारे कर्ज में दबे
पर दिखे न इनका तोड़
कैसे हो रहे हैं अब लोग
जाने कितने"कर"नए लाते
सुविधाओं के नाम से भुनाते
जनता बातों में आ जाती
वादों की गोली जब खिलाते
यहां सिर्फ वोटों का है मोल
कैसे हो रहे हैं अब लोग
घोटाले करो और उड़ जाओ
देश का धन बाहर ले जाओ
फिर भी कोई पकड़ नहीं है
पैसों की ताकत बड़ी तगड़ी है
ग़रीब पर चलता सबका जोर
कैसे हो रहे हैं अब लोग
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, December 21, 2018

माँ की मुस्कान

एक रात एक कली खिली
भोर हुई तो फूल बनी
यौवन की दहलीज पर आकर
किसी के घर का नूर बनी
बनी किसी के गले का हार
चेहरे की मुस्कान बनी
भूल गई दर्द वो अपना
सबके दर्द की दवा बनी
पायल,बिछिया,बिंदी,महावर
जीवन का श्रृंँगार बने
वात्सल्य भरा हृदय लेकर
वंश बेल को लगी सींचने
सबकी खुशियांँ चुनते चुनते
अपनी उम्र को भूल गई
छुट गया साथ साथी का
अपने दम पर खड़ी रही
वक़्त बदला,लोग बदले
पर उसकी मुस्कान न बदली
आंँखों में छिपा बहुत कुछ
पर उसकी पहचान न बदली
बालों में चांँदी सी चमक
पायल की कम होती खनक
बुझने लगी मुस्कान उसकी
मुख फेरती संतान उसकी
कल तक जो गोदी में पला था
बेटा आज दूर खड़ा था
आंँखों में छलकने लगे थे आंँसू
जिनको सबसे लगीे छुपाने
बड़े चाव से जो घर था सजाया
उस घर में पसंद नहीं उसका साया
माँ थी अपने जिगर के टुकड़े की
अब उसी की नौकरानी बन गई
फिर भी कोई गिला नहीं
बेटा फिर भी बुरा नहीं
देती रही दिन-रात दुआएंँ
बेटे की बढ़ती रहें खुशियांँ
पर आंँखों पर पट्टी बंधी थी
माँ की तकलीफ़ कहाँ दिखती थी
सबसे बड़ा बोझ थी सिर पर
कब उतरेगा फिक्र यही थी
छोड़ दिया एक दिन बेबस
वृद्धाश्रम में जाकर उसने
रोती रही बेटे को पकड़ कर
पर उसने न देखा पलट कर
कैसा यह कलयुग का प्राणी
जिसने माँ की कदर न जानी
जब तक जरूरत,तब तक मा-ँबाप हैं
चलना सीखा तो वो बेकार हैं
जिस माँ की मुस्कान थी प्यारी
देदी उसी को दर्द की बीमारी
क्यों भूलते यह दुनियांँ गोल है
जो बोओगे उससे मिले दूना मोल है
***अनुराधा चौहान***

Thursday, December 20, 2018

हाय यह भूख

भूखे पेट की माया
कहीं धूप कहीं छाया
दाने-दाने को मोहताज
फिरते लिए हड्डियों का ढांचा
काम मिला तो भरता है पेट
नहीं तो भूखे कटते दिन अनेक
बेरोजगारी बनी बीमारी
जिसने छीनी खुशियां सारी
पर परेशानी का हल निकले कैसे
मंहगाई तो कमर तोड़े ऐसे
जिनके हाथों में इसका हल है
उनको जनता की फ़िक्र किधर है
सब अपनी कुर्सी के भूखे
जनता जिए या मरे भूखे
भूख,भूख, हाय यह भूख
कहीं दो रोटी की चाहत
तो कहीं दौलत की भूख
फिर भी मिटती नहीं
पता नहीं कैसी है यह भूख
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, December 19, 2018

रंग बदलती दुनियां



रंग बदलती 
दुनियां में
हर चीज 
बदलते देखी है
चेहरे पर 
मुस्कान लपेटे
इंसान बदलते
देखें हैं
कांँच से है 
रिश्ते आज़ के
कब टूट जाएंँ 
किसी बात पर
कदम फूंँक-फूंँक 
कर रखना
फिर भी दिलों में 
कांँटों से चुभना
गिरगिट खुद
शर्मिंदा होता
जब इंसानों को रंग
बदलते देखता
सोचता हम तो 
बेकार ही बदनाम है
रंग बदलने में तो
माहिर इंसान है
मुस्कान के पीछे 
छुपे चेहरे में
न जाने कितने 
राज गहरे हैं
कहीं दर्द छिपा 
रखें हैं तो
कहीं बेवफाई 
के मुखोटे हैं
***अनुराधा चौहान***

Sunday, December 16, 2018

संस्कार


वक्त की धारा में
धूमिल होते संस्कार
नहीं दिखाई देता कहीं
पहले जैसा 
प्यार और सम्मान
रिश्तों में भी मचा रहता
आपसी द्वंद 
सब इसी कोशिश में लगे
कि हम नहीं किसी से कम
अब तो आया 
इंग्लिश का ज़माना 
हिंदी बन गई 
पुराना ज़माना
हाय,हैलो कर होता है
अब बड़ों का सम्मान
कौन चरणस्पर्श कर
रीढ़ की हड्डी 
को करे परेशान
भूल गए इस संस्कार को
बड़ों के आदर-सत्कार को
आशीर्वाद में उनसे
मिलने वाले प्यार को
अपनी सभ्यता संस्कृति का
घोंट कर गला
कौनसा संस्कार अपने
बच्चों को दोगे तुम भला
ऊपरी चकाचौंध तो कुछ
दिन रंग दिखाती है
अगर संस्कार अच्छे हैं
खूबसूरती दिन पर दिन
निखरती जाती है
इसलिए हमेशा करो बड़ों
का सम्मान क्योंकि 
उनसे मिलता है 
हमें उत्तम ज्ञान
***अनुराधा चौहान***

Thursday, December 13, 2018

सर्द हवाएं

चलने लगी सर्द हवाएंँ
शिशिर ऋतु का 
एहसास कराए
आगोश में अपने लपेटे
कहीं कोहरे की घनी चादर
के बीच फंसी सूर्य की
किरणें बेताब है ज़मीं छूने को
कहीं गुनगुनी धूप 
तन को भाती
कहीं ठंड में ठिठुरते लोग
फटी चादर में 
तन को ढकने का
जबरन प्रयास करते दिखते
कहीं लोग अलाव जलाकर
मौसम का मजा लेते दिखते
जमने लगी बूंँदें ओस की
पुष्पों की पंँखुड़ियों पर
ढुलक कर समांँ जाती
धूप देख भूमि 
के आगोश में
कभी कभी 
सर्द हवाएंँ भी
तन जलाने लगती हैं
जो खो गया जीवन में
वो यादें ताजा हो जाती है
बीतने लगता है वर्ष
जाने कितनी यादें साथ ले
इस आस के साथ
आने वाला वर्ष 
अच्छा गुज़रे
जब चले सर्द हवाएंँ तो
शिशिर भी बड़ा 
सुहाना लगे
खिले सुख की धूप
मौसम यह मनभावन लगे
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, December 12, 2018

जिसके हम हों राजा-रानी

शिशिर की 
शीतल रातें
ढोलक पर 
पड़ती
जब थापें
मधुर मिलन के 
गीत गाती
गुजरिया 
झूम झूमकर 
नाचें
बातें प्रीत की 
करनी हैं बाकी
चाँद तारे बने 
हमारे साक्षी
क्यों सजनी 
तू शरमाए
चलो हम गीत 
मिलन के गाएं
ठंडी सर्द 
हवाओं में
सुंदर मस्त 
फिज़ाओं में
आ तुझको 
मैं प्यार करूं
आ तेरा 

श्रृंगार करूं
मैं ले आया 
यह सुंदर हार
जो बने तेरे 
गले का श्रृंगार
आ तुझको 
पहना दूं प्रिय
दिल का हाल 
सुना दूँ तुझे
यूं चुप न बैठो 
कुछ तो कहो
कुछ मेरे संग 
सपने बुनो
तू मेरी मैं 
तेरा प्रिय
कहीं बीत 

न जाए 
रैना प्रिय 
आ तुझको 
सीने से लगाकर
अपने दिल में 
तुझे बसाकर
आओ लिखे 
आज़ प्रेम-कहानी
जिसके हम हों 
राजा-रानी

***अनुराधा चौहान***(चित्रलेखन)

जिंदगी

कोई जब ज़िंदगी में 
खास होता है
उसका वक़्त पर 
एहसास नहीं होता
जब कहीं वो आंँखों से 
ओझल हो जाता है
तब अपनी गलती का 
एहसास होता है
ऐसे ही माता-पिता की 
अहमियत 
तब तक समझ नहीं आती
जब तक वो हमारी 
जरूरत पूरी करते रहते हैं
जब वो लाचार हो जातें हैं
या कभी अचानक
सिर से हट जाता 
पिता का हाथ
आश्वासन देने तो 
बहुत लोग हैं आते
पर साथ देने वाला 
कोई हाथ नहीं आता
तब होता है पिता की
अहमियत का एहसास
समय रहते करलो
हर रिश्ते की कदर
ज़िंदगी मौका देती है
तो धोखा भी दे जाती है
***अनुराधा चौहान***

Saturday, December 8, 2018

नारी है इसलिए अटल खड़ी है


आंखों में उसके चंचलता
बातों में उसके मोहकता
चलती है जब बल खाकर
लगती जैसे हो मधुशाला

हो स्वर्ग से उतरी हूर कोई
इतनी सुन्दर जैसे हो परी
दिल ममता से भरा हुआ
आंखों में दर्द है कहीं छुपा

तन से कोमल मन से कोमल
चंचल चितवन जैसे कमल नयन
गाल गुलाबी फूलों जैसे
फिर भी चुभती सबको शूलों जैसी

नारी बिना कोई मर्द नहीं
फिर भी दिखता उसका दर्द नहीं
चंचल मन वो सबको दिखाती
अपनी मजबूरी सबसे छुपाती

कुदरत का वो अनमोल नगीना
जिसने की सृष्टि की रचना
सदियों से मन में चाह लिए
उसको भी पूरा मान मिले

औरत है नहीं कोई खिलोना
क्यों उसका सुख-चैन है छीना
देदो उसको भी अधिकार सभी
होंठों पर खिल उठे चंचल हंसी

अपने आत्मसम्मान की खातिर
लड़ती रही और लड़ती रहेगी
चंचल,ज्वाला दोनों रूपों में
नारी है इसलिए अटल खड़ी है
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, December 5, 2018

रिश्तों के मायने


भीड़ कितनी भी हो मगर
पर तन्हाईयां रास आतीं हैं
होती है कुछ वेदना भरी 
स्मृतियां मन मस्तिष्क से 
नहीं निकल पातीं हैं
ऐसे ही जब कोई अपना
असमय ही साथ छोड़ जाता है
मन में सिवाय वेदना के 
कुछ भी नहीं रह जाता है 
इक क्षण में बिखर जाते हैं
रिश्तों के मायने टूट कर
द्वेष पाल कर बैठ जाते हैं
वेदना पहुंचाने मेंं अक्सर
जीवन में कई मोड़ लेकर
आते हैं जिंदगी के रास्ते
कहीं कहीं फूलों भरे हैं
कहीं भरे असंख्य कांटो से 
कभी कभी कह दी जाती है
कुछ बातें अनजाने में
एक पल भी नहीं सोचते हैं
हम उसे वेदना पहुंचाने में
लौटकर नहीं आती हैं
जो बातें ज़बान से निकले
मन ही मन तड़पातीं हैं
जो गर ख्याल से न निकले
क्यों खुद की खुदगर्जी में
इतना खो जाते हैं लोग
वेदना पहुंचाकर मन को
फिर हो जाते हैं मौन
कोशिश हर इंसान की
अपनेपन की होनी चाहिए
कभी भूले से न देना किसी को दर्द
वो इंसानियत होनी चाहिए
***अनुराधा चौहान***

गूंज उठी मधुर शहनाई

गूंज उठी मधुर शहनाई
सजी चूड़ियां गोरी की कलाई
चल दी गोरी पिया की गली
आंखों में ढेरों सपने लिए
होंठों पर ढेरों नगमे लिए
ओढ़ के प्रीत की चुनरी
मां की लाड़ली दुल्हन बनी
चल दी गोरी पिया की गली
नये रिश्तों में रचने बसने
प्रीत के रंग में खुद को रंगने
शहनाई सा मधुर मिलन हो
ज़ीवन की सुंदर सरगम हो
महक उठी मन की फुलवारी
बाबुल के आंगन की खुशियां चली
चल दी गोरी पिया की गली
जीवन की रीत यह कैसी
छूट गई डगर पीहर की
घड़ी बिछड़ने की अब आई
कानों में चुभने लगी शहनाई
आंखों में ढेरों आंसू लेकर
घर की खुशियां साथ लेकर
भाई-बहन सब पीछे छोड़कर
गूंजती शहनाईयों में
थाम साजन का हाथ चली
चल दी गोरी पिया की गली
***अनुराधा चौहान***

Monday, December 3, 2018

साया साथ न छोड़ें


जब तक जीवन
चलता जाए
साया साथ न छोड़ें
जाने कितने रूप रंग में
जीवन में रंग जोड़े
पैदा होते ही मिला मुझे
माँ के आंचल का साया
लाड़ प्यार से जिसने
मेरा ज़ीवन है चमकाया
धीरे-धीरे बढ़े हुए तो
पिता बने फिर साया
जीवन की हर 
धूप-छांव में मुझको
चलना सिखाया
फिर मिला मुझे जीवन में
साया हमसफ़र का
बड़ा सुहाना बना दिया
सफ़र उसने जीवन का
खुद का साया
साथ तभी तक
जब तक यह जीवन है
साया रूठा जीवन टूटा
साया का भी जीवन है
***अनुराधा चौहान***

Sunday, December 2, 2018

छाई हुई धुंध है

गहन है अंधकार
छाई हुई धुंध है
अजीब सी ख़ामोशी
विचारों का द्वंद है
भेदती इस
ख़ामोशी को
आवाज़ें गहरी 
सांसों की
मौन में भी 
पसरी है
कोई कहानी
गहरे ख्यालों की
आसमां है टूटते 
तारे को देख मौन
हम टूट कर बिखरें
तो लगता है अब 
हमारा कौन
मन में उठतेे इन
विचारों का नहीं
कोई जवाब है
टूटकर बिखरना
गिर कर संभलना
जिंदगी पथ पर
सुख-दुख अपार है
गहन अंधकार में
आज छाई धुंध है
होगा प्रकाश
कल खुला आकाश है
***अनुराधा चौहान***