शीतलहर को झेलते, बैठे सिगड़ी ताप।
ठंडी से दुविधा बड़ी,राग रहे आलाप।
सूरज रूठा सा लगे,बैठा बादल ओट।
शीतलहर के कोप से, पहने सबने कोट।
चुभती है ठंडी हवा,शीतल चुभती भोर।
बैठी गुदड़ी ओढ़ के,माई सूरज ओर।
ठंडी भीनी धूप में, बैठे मिलकर संग।
मफलर कानों पे चढ़ा ,डाटे जर्सी अंग।
कुहरा झाँके द्वार से,हवा उड़ाती होश।
मोटे ताजे लोग भी, बैठे खोकर जोश।
छत के ऊपर बैठ के,सेंक रहे हैं धूप।
टोपा मोजा को पहन,अजब बनाए रूप।
गाजर का हलवा बना,सर्दी की शुरुआत।
चाय पकौड़े हाथ में, करते हैं सब बात।
भट्टी में आलू भुने,हाथ लिए है नोन।
बैठे अलाव तापते,दादा जी हैं मौन।
घनी पूस की रात में,नन्हा काँपे जोर।
टपके कच्ची झोपड़ी,घन बरसे घनघोर।
सिर पे अम्बर है खुला,थर-थर काँपे हाथ।
कथरी गुदड़ी ओढ़ के,सोता है फुटपाथ।
छत के ऊपर बैठ के,सेंक रहे हैं धूप।
टोपा मोजा को पहन,अजब बनाए रूप।
गाजर का हलवा बना,सर्दी की शुरुआत।
चाय पकौड़े हाथ में, करते हैं सब बात।
भट्टी में आलू भुने,हाथ लिए है नोन।
बैठे अलाव तापते,दादा जी हैं मौन।
घनी पूस की रात में,नन्हा काँपे जोर।
टपके कच्ची झोपड़ी,घन बरसे घनघोर।
सिर पे अम्बर है खुला,थर-थर काँपे हाथ।
कथरी गुदड़ी ओढ़ के,सोता है फुटपाथ।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार