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Tuesday, February 16, 2021

दिखावे का सच


 जीतने की होड़ ऐसी
मिट रही जग से भलाई।
बेवजह की अटकलों से
आपसी बढ़ती लड़ाई।

स्वार्थ के रंग रंगकर 
अपनों से करली दूरी।
भेदी मन के मीत बने
कैसी जग की मजबूरी।
खुशियाँ अपने जीवन की
हाथों से आग लगाई।
जीतने की होड़ ऐसी....

देख दिखावे के पीछे
रास नहीं गलियाँ आती।
जीवन बीता जिस घर में
खाट नहीं वो मन भाती।
धन वैभव सिर चढ़ बोला
भूल गए अपने भाई
जीतने की होड़ ऐसी...

तिनका तिनका घर बिखरे
चैन सभी मन का खोते।
असली खुशियाँ दूर हुई
बैठ करम को फिर रोते।
अश्रु की नदिया बहे फिर
याद की चली पुरवाई।
जीतने की होड़ ऐसी...
©® अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार

Friday, February 5, 2021

मशीनी ज़िंदगी


अब वो ज़िंदगी कहाँ है
जिसमें
आँगन थे चौबारे थे
चौपाल में
बुजुर्गों के ठहाके थे
गलियों में
किलकारी थी
दादी नानी
की कहानी थी
हरियाली का
आँगन था
मन हर्षाता
सावन था
घर-घर
हँसी ठिठोली थी
प्रीत भरी
हर होली थी
कल-कल करती
स्वच्छ नदी के
तट कितने
निर्मल पावन थे
नोंक-झोंक के
रस से भरे
रिश्ते भी
मनभावन थे
समय बदला
बदली रीत
खो गई कहीं
पहले सी प्रीत
अपने में
सब दुनिया सिमटी
हर रीत
दिखावे में लिपटी
अब इस
मशीनी दुनिया में
डिलीट एक्सेप्ट का
दौर चला
लाइक डिस्लाइक
के फेर में
फंसकर
इंसान अब
अकेला चला
खो गई
यह सारी खुशियाँ 
अब कहीं शोर में
मशीन बना
जीवन जीता
मानव भी इस दौर में
©® अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️ 
चित्र गूगल से साभार