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Sunday, September 30, 2018

रानी लक्ष्मीबाई (वर्ण पिरामिड )

थी
ज्वाला
आजादी
धधकती
उसके सीने
रण चण्डी बन
खूब लड़ी मर्दानी


था
लाल
सलोना
बांध पीठ
समर भूमि
रानी लक्ष्मीबाई
वीरांगना महान


ले
शोले
नयन
तलवार
सनसनाती
युद्ध भयंकर
शत्रू थरथराए


दे
गई
चकमा
घोड़ा अड़ा
हुई घायल
वीरगति पाई
शत् शत् नमन

***अनुराधा चौहान***

Thursday, September 27, 2018

क्यों कभी ऐसा होता है


क्यों कभी कभी ऐसा होता है
सब कुछ होकर भी
कुछ नहीं होता है
होता है मन परेशान
और दिल बैचेन होता है
ज़मीं लगती है बंजर
आसमां सफेद होता है
जब मन में उदासी का
आलम गहरा होता है
दिल में मचती है हलचल
समंदर ठहरा ठहरा होता है
जलाती हैं तन को सर्द हवाएं
तेज धूप में घना कोहरा होता है
फूल बन जाते हैं कांटे
कांटों में चमन दिखता है
जब देते है अपने धोखा
तो दिल में बहुत दर्द होता है
क्यों कभी कभी ऐसा होता है
सब कुछ होकर भी
कुछ नहीं होता है
***अनुराधा चौहान***

Wednesday, September 26, 2018

गुब्बारे सस्ते हैं लेलो

लाल गुलाबी नीले पीले
गुब्बारे सस्ते हैं लेलो
कहकर वो आवाज लगाती
गोदी में था बाल सलोना
कपड़े में इक बोतल लिपटी
जिससे उसको दूध पिलाती
फिर भी रह रह कर रोता था
इक पल भी नहीं सोता था
गुजरती रही थी पास से उसके
मैं देख ठिठक कर रुक गई
पूछा यह क्यों इतना रोता है
दूध पीकर भी नहीं सोता है
ले आंखों में नमी वो बोली
भूख तो इसकी तब मिटती
जब मैं इसको दूध पिलाती
बोतल में तो पानी है
जिससे इसको मैं बहलाती
गर बिक जाते कुछ गुब्बारे
दूध कहीं से ले आती
भूखा मेरा बाल सलोना
पेट भर कर इसे पिलाती
बोली में उसके दर्द बहुत
आंखों में उसके पानी था
सुनकर उसकी बातों को
आंखें मेरी भी भर आईं
घर में नहीं कोई छोटा बच्चा
फिर भी खुद को रोक न पाई
खरीद लिए कुछ गुब्बारे
लेकर उनको घर पर आई
 ***अनुराधा चौहान***

Monday, September 24, 2018

यह कैसे रंग

यह कैसे रंग भरे
इस सुंदर से संसार में
कहीं भरी है रौनकें
कहीं बहुत है दर्द भरे
भर रहा था रंग जब
ले तूलिका वो हाथ में
काश कुछ तो फर्क करता
इंसान और हैवान में
पहचानना आसान होता
भीड़ में संसार की
फिर शक न होता
इंसान को इंसान पर
रंग बहुत भरे है उसने
इस सुंदर संसार में
बस एक रंग मिटा देता
मतलब का संसार से
कोमलता का रूप रचा
नारी का संसार में
ममता का रंग मिले
नारी से संसार को
पर जीवन में उसके
रंग भरे कैसे भेदभाव के
यह कैसा चित्रकार है
जिसने रंग भरे संसार में
***अनुराधा चौहान***

Sunday, September 23, 2018

परदेशी

कब आओगे परदेशी
तुम फिर मेरे गांव में
कब तुमसे फिर मिलना होगा
ठंडी पीपल की छांव में

करती हूं मैं तेरा इंतजार
फिरूं बाबरी गलियों में
शायद तुम फिर दिख जाओ
कहीं गांव की गलियों में

हरे-भरे यह खेत खलिहान
सब उजड़े उजड़े दिखते हैं
यादों से कैसे धीर धरूं
नैनों से नीर बरसते हैं

आ जाओ अब तुम बिन
सब ठहरा ठहरा लगता है
चेहरे पर मुस्कान नहीं
उदासी का पहरा रहता है

कब आओगे परदेशी
तुम फिर से इन गलियों में
अब की में भी साथ चलूंगी
संग तेरे तेरी दुनिया में

***अनुराधा चौहान***

Saturday, September 22, 2018

पूर्ण विराम बनकर

आरजू लिए आसमां में
उड़ने की जब भी मैं
सपनों को जीने लगती
काटने परों को मेरे
दुनिया खड़ी होने लगती
लगने लगते प्रश्नचिंह
मेरी हर एक बात पर
निकल आते थे आंसू
मेरे खुद के हालात पर
पूछती थी मैं आईने से
यह सवाल मन के
प्रश्नचिंह बन खामोशी
बिखर जाती थी मन में
सोचती थी कब लगेगा विराम
इन बातों पर बेफिजूल की
सोचती थी मैं अक्सर यही
हमसफर मिले सच्चा कोई
जब साथ तेरा किस्मत ने
साथ मेरे जोड़ दिया
कदमों में पड़ी बेड़ियों को
तूने आकर तोड़ दिया
देकर नई पहचान तुने
मेरे सपने मेरे वजूद को
तुम आए हो मेरी
बिखरती जिंदगी में
एक पूर्ण विराम बनकर
***अनुराधा चौहान***

Friday, September 21, 2018

सत्य का ज्ञान

माया माया करते करते
माया मिली न चैन
तृष्णा के भँवर में फसकर
मन हो गया बैचेन
मन होवे बैचेन
चैन अब कहां से पाएं
एक तृष्णा मिटी नहीं
दूजी फिर जग जावे
गले पड़ी है तृषणाएं
लिए हाथ कटारी
पूरी करते करते इनको
सब भूले दुनियादारी
अब झोला लेलो हाथ
या फिर हाथ कमंडल
तृष्णा पीछा न छोड़ें
घूम लो पूरा भूमंडल
तिनका तिनका जोड़ कर
कितना भी भरो खजाना
खाली हाथ आए जग में
हाथ खाली ही जाना
जिस दिन सत्य का ज्ञान
मनुष्य को होवे भैय्या
तब भवसागर से तरेगी
उसकी जीवन नैय्या
***अनुराधा चौहान***

माया मिली न चैन

माया माया करते रह गए माया मिली न चैन
गले पड़ी हैं ये तृष्णाएं लेकर हाथ कटारी
पूरी करते इनको सब हम भूले दुनियादारी
तृष्णा के भँवर में फसकर मन हो गया बैचेन
मन हो गया बैचेन,चैन अब कहां से पाएं
एक तृष्णा मिटी नहीं दूजी फिर जग जावे
***अनुराधा चौहान***

मन के भाव

मन के भाव
जब शब्दों के
रूप में कागज
पर सजते हैं
तो कभी गीत
बन मन को
लुभाते हैं
तो कभी कविता
बन मन को
सुकून देते है
कभी प्रियतम
की पाती बन
सजनी तक
उसका संदेशा
बन आ जाते
और जब गजल
का रूप लेते
तो दिल की
गहराई में उतर जाते
यह हमारे मन के
भाव है जो हमें
जोड़े रखते हैं
***अनुराधा चौहान***


Wednesday, September 19, 2018

तृष्णा के भँवर में

तृष्णाओं में फसे रहना
यह है मानव की प्रवृत्ति
इसलिए मशीन बन के
रह गई आज उनकी जिंदगी
लगे हुए है सब एक दूजे
की कमियों को टटोलने
दिखावे के इस दौर में
फिरते तन्हाइयों के खोजते
रच रहे हैं सब चक्रव्यूह
यहां एक दूजे के वास्ते
इंसान ही आज फिरते
इंसानियत को मारते
उजाड़ कर चमन को
हवाओं में जहर घोलते
रिश्तों को अब सभी
मतलब के तराजू में तोलते
अब धूप भी खिलती है
इक अजीब तपन लिए
चाँद की शीतलता को
जैसे लग रही दीमक कोई
खो रहीं हैं रौनकें सब
आज आपसी द्वंद में
जबसे फसा मानव मन
तृष्णा के भँवर में
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, September 18, 2018

जिंदगी के रंग

कभी पवन सी बहती
कभी सरगम है गाती
कभी हंसती मुस्कुराती
पल में रंग बदलती जिंदगी
जिंदगी तो जिंदगी है
खुशियों के रंग भरती
कभी फूलों सी खिलती
कभी शूलों सी चुभती
कभी पतझड़ सी झड़ती
अपने रुप दिखाती जिंदगी
जिंदगी तो जिंदगी है
अपनी रफ्तार भागती
कभी सागर सी उफनती
कभी नदियों सी मचलती
कभी झरने सी झरती
रेत सी फिसले यह जिंदगी
जिंदगी तो जिंदगी है
सुख-दुख के खेल दिखाती
कभी टूट कर बिखरती
कभी उठ कर संभलती
किसी मोड़ पर है जा रुकती
बड़ी धोखेबाज है जिंदगी
जिंदगी तो जिंदगी है
अपने कर्त्तव्य निभाती
***अनुराधा चौहान***

Monday, September 17, 2018

बैचेनी का राज

कोई आकर्षण था
उसकी आंखों में
या कोई लगाव
उस अनदेखे चेहरे से
जब भी गुजरती मैं
उसकी गली से
खिड़की से झांकती
उसकी बैचेनी भरी आंखें
जैसे वो मेरा ही
इंतजार कर रहा हो
कोई राज छिपा था
उसकी आंखों में
अक्सर ठिठक जाते थे
मेरे कदम देखकर
उसकी आंखों को
कुछ कहना चाहती थी
पर कह नहीं पाई
कोई बंधन रोके था
अब जब नहीं दिखाई
देती मुझे उसकी आंखें
तो एक बैचेनी लिए
गुजरती हूं अब भी
उसकी गली से मैं
इस इंतजार में शायद
फिर नजर आ जाए
छिपकर देखती आंखें
तो इस बार पूछूंगी
उसकी बैचेनी का राज
***अनुराधा चौहान***

Thursday, September 13, 2018

कशमकश में दिन निकले

 
चार यहां पड़े
चार वहां पड़े
जिंदगी में लफड़े
हजार पड़े
इधर संभालूं
उधर बिगड़े
उधर संभालूं
इधर बिगड़े
इसी कशमकश में
जिंदगी हाथ से फिसले
मन रहे हरपल
सुकून की तलाश में
कहीं तो फुरसत
के कुछ पल निकलें
चाहत मेरी मैं
सबको खुश रखूं
फिर भी कहीं
बात बनें तो
कभी बिगड़े
रखूं चुन-चुनकर
खुशियों के पल
सब मुझ से खुश हो
इसी कशमकश में
दिन निकले
***अनुराधा चौहान***



Wednesday, September 12, 2018

क्षितिज के पार

कभी सुनी थी
बचपन में
एक कहानी
क्षितिज के पार
एक दुनिया सुहानी
सुंदर सुंदर
बाग बगीचे
उड़ते सब और
उड़न खटोले
कल कल करती
नदियां बहती
आसमां से
चाकलेट गिरती
स्वर्ग से सुंदर
उस दुनिया में
रहती है एक
परियों की रानी
न मचता कोई
कोलाहल वहां
न कभी होती
कोई मारामारी
क्षितिज के पार
की उस दुनिया में
छाई रहती
हरदम खुशहाली
नहीं रहना मुझे
अब इस दुनिया में
कंक्रीटों के इस
जंगल में
खुशियों की है
तलाश मुझे भी
ले जाए कोई
उस पार मुझे भी
जहां होती है
खुशियों की बारिश
कल की रहती
कोई फिकर नहीं
बहुत सुंदर है
और न्यारी
क्षितिज के पार की
दुनिया सुहानी
***अनुराधा चौहान***



Tuesday, September 11, 2018

तारों का क्षितिज बंद

रात देखा एक स्वप्न
क्षितिज पर मचा था
तारों का क्षितिज बंद
छोड़कर चमकना
सबका हुआ गठबंधन
सुनने समस्याओं को
मौजूद सभी देवगण
एक एक समस्याओं
का करके निदान
सफल कर रहे
क्षितिज का बंद
तभी ध्रुव तारे का
हुआ आगमन
शुरू हुआ तारों
का जगमगाना
साथ ही सफल हुआ
तारों का क्षितिज पर बंद
लो होने लगा
सुबह का आगमन
सूरज की किरणें देख
प्रकृति झूमीं बनठन
आगाज़ हुआ एक
और भारत बंद
मच रही तोड़फोड़
मचा आपस में द्वंद
कस रहे सब
एक दूजे पर तंज
समस्याओं को सुलझाने
नहीं आगे आए
कोई भी नेतागण
जनता के गले का फंद
बना रोज रोज का बंद
जलती गाड़ियां
चलते पत्थर लट्ठ
एंबुलेंस में जिंदगी
बंद में तोड़े अपना दम
मंहगाई ने भी कस ली
कमर हम नहीं होंगे
बिल्कुल भी कम
इससे तो अच्छा था
स्वप्न का क्षितिज पर बंद
***अनुराधा चौहान***

Monday, September 10, 2018

मैं आई तेरे संग सजना

अहसासों की डोर बाँधकर
 मन में सुनहरे स्वप्न सजाकर
डोली में बाबुल के घर से
मैं आई तेरे संग सजना

अपने बाबुल को छोड़कर
माँ के आँगन को छोड़कर
तुझ संग अपनी प्रीत जोड़कर
मैं आई तेरे संग सजना

अब जाना क्या होता पीहर
भाई बिना जीना है दूभर
नये रिश्तों के बंध में बंधकर
मैं आई तेरे संग सजना

अब नए घर से जोडे नाते
सुनके कड़वी मीठी बातें
अपना कर्म निभाऊँ सजना
मैं आई तेरे संग सजना

छोटी सी अरज ये सुनलो
मुझे चाहें जो कुछ भी कहलो
बस पीहर का मन समझना
मैं आई तेरे संग सजना

 सब-कुछ तुझपे मैं वार दूं
तेरे घर को मैं सवार दूँ
निभाऊँगी सातों वचन अँगना
मैं आई तेरे संग सजना
***अनुराधा चौहान***

Saturday, September 8, 2018

खामोशियों की जुबान

खामोशियां कब
बेजुबान होती हैं
खामोशियों की भी
होती है जुबां
जो बड़ी खामोशी से
बड़ी बड़ी बाते
कह जाती हैं
जो हम जुबां से
नहीं कह पाते
यह पेड़ पौधे
बड़ी खामोशी से
बन जाते है
हमारे जीवन
का हिस्सा
यह घर दीवारें
खामोश जुबां से
कर जाते हैं वो
बातें वो गहरे भेद
जो छिपे हैं इनके अंदर
यह खामोश आईना
बड़ी खामोशी से
दिन पर दिन
ढलती उम्र दिखा
याद दिलाता
बीते लम्हों की
कुछ रिश्ते भी
बहुत खामोशी से
करते हैं फिक्र
पर जुबां से कभी
नहीं करते कोई जिक्र
कुछ रिश्ते
आंखों में कर
जाते कितनी बातें
जिन्हें समझने के लिए
किसी शब्दों की
जरुरत नहीं होती
जहां बातों से
बात बिगड़ती है
खामोशी बड़ी
खामोशी से बना
जाती बिगड़े काम
खामोशियों की भी
होती है जुबान
***अनुराधा चौहान***

Friday, September 7, 2018

खत लिख दो मितवा

रोज आ बैठती हूँ
इसी उम्मीद में यहां
तुमने किया था
लौट आने का वादा
दिन निकल रहे
तेरी याद में
लो यह शाम भी
ढल गई तेरे
इंतजार में
रातें कटती मेरी
तेरे ख्वाबों में
कब आओगे
खत लिख दो मितवा
करती हूं आज भी
तेरा इंतजार मितवा
तुम कैसे भूल बैठे
अपना यह वादा
बाटेंगे सुख-दुख
हम आधा-आधा
राह तकते तकते
थक गई है अंखियां
बिखर रही मेरे
ख्वाबो की लड़ियां
नहीं आओगे तो
तुम खत लिख दो
इंतजार खत्म हो
बस अब तो
जिंदगी तुम बिन
वीरान है मितवा
कब आओगे तुम
खत लिख दो मितवा
***अनुराधा चौहान***







Wednesday, September 5, 2018

मैं तेरा मीत बनूं

तुम आँख बंद करो
मै सपने बुनूं
तुम उन्हें शब्द दो
मै इन्हें लिखू
तुम धुन गुनगुनाओ
मै गीत लिखूं
तुम इन्हें सुर दो
मै साज बनूं
तुम मन की वीणा
मै तार बनूं
तुम मेरा जीवन
मै संगीत बनूं
तू मेरी मितवा
मै तेरा मीत बनूं
प्यार से जहां में तेरे
मै अपनी प्रीत भरूं
***अनुराधा चौहान***




Sunday, September 2, 2018

हां हम नारी हैं

नारी को बेचारी समझना
यह भूल तुम्हारी है
हां हम नारी हैं
तूफानों से टकरातीं हैं
कभी न रुकना
फितरत हमारी है
गर्व हमें है खुद पर
कि हम नारी हैं
नारी पर आश्रित
यह दुनिया सारी है
हां हम नारी हैं
माँ बहन
बेटी और पत्नी
न जाने कितने
रुपों को हम जीते
संकट परिवार आए
तो पीछे न हटते
हम ही दुर्गा हैं
काली कल्याणी हैं
हां हम नारी हैं
हम हड़ताल करने
पर जब भी उतर जाए
 घर में सब तरफ
उथल-पुथल मच जाए
एक साथ कई काम
 हमारी पहचान है
कितने भी बीमार हो
करते फिर भी काम है
मुस्कान मुख पर हरदम
नहीं कभी आराम है
फिर भी सबसे ज्यादा
नाकारा हम ही समझी जाते
थकान से चूर है
फिर भी काम करते हैं
 घर बैठे सारे दिन
हम ही आराम करते हैं
क्यों किसी से झुकें
खुद को कम समझे
हां हम नारी हैं
पर यह मत समझो
हम अबला बेचारी हैं
हम नहीं किसी से कम
हम तो वो नारी हैं
जो पुरुषों पर भारी है
 हर क्षेत्र मेंआगे रहती
मुश्किल में नहीं घबराती
हरदम टूटते सपने
फिर भी न हताश होते
मुश्किलों में अटल खड़े
यही खूबी हमारी है
हां हम नारी हैं
कभी न रुकना
फितरत हमारी है
***अनुराधा चौहान***

माखन में न चोरी करुं

जन्मोत्सव आया
आज मेरो मैया
मत रूठो मोसे
यशोमती मैया
छोटो सो में तेरो लल्ला
माखन में न चोरी करुं
छोटे-छोटे हाथ मेरे
छोटे-छोटे पैया
कैसे तोड़ू मटकी
में तोरी मैया
छोटो सो में तेरो लल्ला
माखन में न चोरी करुं
बाल सखा मैया
सब बड़े झूठे
नाम लगा मेरो
सब छुप बैठे
छोटो सो में तेरो लल्ला
माखन में न चोरी करुं
सांवली सूरत मोरी
मैया गोपियां चिढ़ावे
मुख पर मेरे माखन लगावे
मैं नहीं माखन खायौ
माखन में न चोरी करुं
छोटो सो में तेरो लल्ला
माखन में न चोरी करुं
***अनुराधा चौहान***