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Saturday, December 19, 2020

भूल गए वो


खून-पसीना एक करके
तिनका-तिनका जोड़ा
प्यारा सा सुंदर घरौंदा
अपनों ने ही तोड़ा
हाथों से सहला दुलराते
दीवारों को सजाया
भरा प्रेम का रंग अनोखा
रिश्तों के संग बसाया
कल तक गोद में रहते सिमटे
भूल गए वो बालक
आज बिखरते रिश्ते सारे
बोझ बने हैं पालक
रुला रहे हैं खून के आँसू
अब अपने ही जाए
बूढ़ी होती दुर्बल काया
कहीं ठौर न पाएं
कलयुग की यह कैसी लीला
औलाद पिता पर भारी
जीते जी माँ की छाती पर
संतान चला रही आरी
करनी कुछ कथनी है झूठी
सोशल मीडिया दिखाते
लाइक कमेंट का शौक लगाए
झूठी सेल्फी सजाते
सच यही इस जीवन का
 बाकी सब छलावा
मात-पिता को प्रेम के बदले
मिलता है सदा दिखावा।
©®अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️ 
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, December 15, 2020

चित्र से आभास तेरा


 बंद पलकों में तेरा जब
रूप आकर झिलमिलाता।
नीर की फिर बूँद बनकर
नैन भीतर ठहर जाता।

प्रीत के अहसास मन को
सींचते हैं आस बनकर।
और अंकुर बन पनपते
भावना के बीज झरकर।
चित्र से आभास तेरा
स्पर्श आलिंगन कराता।
बंद पलकों में………

दूरियाँ यह कब मिटेगी
रात दिन ये सोचता मन।
साँझ ढलते पीर बढ़ती
बीत जाए न यह जीवन।
बादलों में चाँद छुपकर
रोज मन को है लुभाता।
बंद पलकों में………

सूखकर बिखरे कभी जो
फूल माला में जड़े थे।
प्रीत बन महके अभी वो
टूट धरती अब पड़े थे।
एक झोंका फिर हवा का
नींद से आकर जगाता।
बंद पलकों में………
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार

Thursday, December 10, 2020

लोभ बिगाड़े संरचना


मानवता को आज मिटाकर
निर्धन का अपमान किया।
मार गरीबों को फिर ठोकर 
अनुचित ही यह काम किया।

दीन हीन को ठोकर मारे
भूल रहे सच्चाई को।
बढ़ी हुई जो भेदभाव की
पाट न पाए खाई को।
मँहगाई ने मूँह खोलकर
निर्बल को लाचार किया।

बढ़ी कीमतें कमर तोड़ती
रोग पसारे पाँव पड़ा।
काम काज कुछ हाथ नहीं जब
रोज खड़ा फिर प्रश्न बड़ा।
किस्मत ने भी धोखा देकर
जीवन में अँधकार किया।

लाभ उठाए लोभी पल पल
देख नियति की यह रचना।
लूट रहे सब बन व्यापारी
लोभ बिगाड़े संरचना।
दूध फटे का मोल लगाया 
ऐसा भी व्यापार किया।

*©®अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️*
चित्र गूगल से साभार

Sunday, December 6, 2020

कब जाने


 जबसे दुनिया में आँख खुली

जन्म का मतलब भी न समझा

चाहतों के बोझ तले

दब गया जीवन का सपना

पल हरपल पल-पल भाग रहा

कुछ सोया सा कुछ जाग रहा

सफर ज़िंदगी का अनवरत

आकांक्षाओं के जन्म से त्रस्त

कुछ टूटे सपनों के भ्रम से

कहीं थके कदम बढ़ती उम्र से

कभी रुके,कभी बेहाल हुए

कभी सच्चाई से दो-चार हुए

ढलते दिन और अनगिनत बातें

बीत गईं जाने कितनी रातें

कब सुनी थी याद नहीं लोरी

टूूूट रही साँसों की डोरी

गुम हुए जीवन के मोती

आँखों की बुझती है ज्योति

कल जन्में आज मरेे

जैैसे शाख से फूल झरेे

आशाओं के सावन से

कब रस बरसे मनभावन से

समय चक्र के चलते-चलते

जीवन के पल रहे ढलते

रह जाते बस शिकवे गिले

इंसान कब शून्य में जा मिलेे

©®अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️

चित्र गूगल से साभार