जबसे दुनिया में आँख खुली
जन्म का मतलब भी न समझा
चाहतों के बोझ तले
दब गया जीवन का सपना
पल हरपल पल-पल भाग रहा
कुछ सोया सा कुछ जाग रहा
सफर ज़िंदगी का अनवरत
आकांक्षाओं के जन्म से त्रस्त
कुछ टूटे सपनों के भ्रम से
कहीं थके कदम बढ़ती उम्र से
कभी रुके,कभी बेहाल हुए
कभी सच्चाई से दो-चार हुए
ढलते दिन और अनगिनत बातें
बीत गईं जाने कितनी रातें
कब सुनी थी याद नहीं लोरी
टूूूट रही साँसों की डोरी
गुम हुए जीवन के मोती
आँखों की बुझती है ज्योति
कल जन्में आज मरेे
जैैसे शाख से फूल झरेे
आशाओं के सावन से
कब रस बरसे मनभावन से
समय चक्र के चलते-चलते
जीवन के पल रहे ढलते
रह जाते बस शिकवे गिले
इंसान कब शून्य में जा मिलेे
©®अनुराधा चौहान स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (8-12-20) को "संयुक्त परिवार" (चर्चा अंक- 3909) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
सुन्दर लेखन
ReplyDeleteहार्दिक आभार विभा दी।
Deleteसमय चक्र के चलते-चलते
ReplyDeleteजीवन के पल रहे ढलते
रह जाते बस शिकवे गिले
इंसान कब शून्य में जा मिलेे...
बहुत सुंदर हृदयस्पर्शी रचना 🌹🙏🌹
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteबहुत सुंदर भावपूर्ण रचना प्रिय अनुराधा जी।
ReplyDeleteसादर।
हार्दिक आभार श्वेता जी
Deleteआदरणीया अनुराधा जी, बहुत सुंदर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteसमय चक्र के चलते-चलते
जीवन के पल रहे ढलते।
--ब्रजेन्द्रनाथ
हार्दिक आभार आदरणीय।
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