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Friday, December 24, 2021

प्रीत की आहट

पूछते कुंडल खनक के
साज मन के क्यों बजे।
प्रीत की आहट सुनी क्या
स्वप्न जो नयना सजे?

लाज की लाली निखरकर
ओंठ को छूकर हँसी।
रात की रानी मचलकर
केश वेणी बन कसी।
माँग टीका क्यों दमककर
लाज धीरे से तजे?
पूछते.....

हार की लड़ियाँ मचलती
सुन प्रणय की आज धुन।
रैन आ देहरी पर बैठी
चूड़ियों का साज सुन।
क्यों हृदय की धड़कनों में 
आज शहनाई बजे?
पूछते.....

पायलें फिर से खनककर
हर्ष का पूछे पता
घुँघरुओं का मौन टूटा
देख लहराती लता।
झूमती पुरवाई संग
ले रही चूनर मजे।
पूछते....
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, December 22, 2021

दायज़



चला रहा सदियों से आरी
आशाओं के बाग खड़ा।
माँग बढ़ाता नित ही दायज़
अपनी हठ को लिए अड़ा।

गठबंधन लाखों में उलझा
हर फेरे पर माँग बढ़े।
फूट-फूट मंडप में रोए
स्वप्न कभी जो हाथ गढ़े।
दंभ भरी लालच की वाणी
लगे कुठारी पीठ जड़ा।
चला रहा....

लोभ लगाए पावन फेरे
लेकर मँहगे स्वप्न बड़े।
एक हाथ में स्वर्ण पोटली
दायज रूपी रत्न जड़े।
फिर भी अपने हाथ पसारे
हर मंडप के बीच लड़ा।
चला रहा....

बोझ बढ़ा पगड़ी पर भारी
मान बिलखता पग नीचे।
कोमल आशा अश्रु बहाती
बैठी अँखियों को मीचे।
मान झुके माँगों के आगे 
करके अपना हृदय कड़ा।
चला रहा....

प्रीत बिलखकर पीछे छूटी
विदा हुई कटुता सारी।
कड़वाहट की पेटी लेकर
डोली बैठी वधु प्यारी।
मात पिता की देख विवशता
हृदय निकलकर वहीं पड़ा।
चला रहा....
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, December 21, 2021

रूठी कविता


 आज कलम से रूठी कविता
कहीं छुपी मन के कोने।
घूम रही सूनी बगिया में
बीज शब्द के कुछ बोने।

भाव बँधे बैठे ताले में
बोल रहे धीरे-धीरे।
बिम्ब बिखेरे रात चाँदनी
कहती है नदिया तीरे।
शब्द मणी से भरलो झोली
चली चाँदनी अब सोने।
आज कलम से………

रक्तिम छवि लेकर शरमाए
भोर सुहानी मनभावन।
ओस लाज का घूँघट ओढ़े
छिपती है माटी आँगन।
दुविधा के केसों में उलझे
रस लगते आभा खोने।
आज कलम से………

शब्द नचे कठपुतली जैसे
पकडूँ तो भागे डोले।
मन बैरागी बनकर भटके
यादों के पट को खोले।
अंतस किरणें झाँक रही हैं
चढ़ा अँधेरा अब धोने।
आज कलम से………
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार

Friday, December 17, 2021

आस मिलन की


चंदा की डोली में चढ़के
झूम हँसी पुरवाई।
तारो के आँगन धीरे से
बैठ निशा शरमाई।

नीरवता को छेड़ उठी फिर
सूखे पत्ते की धुन।
धवल चाँदनी धीरे कहती
मन की बातें कुछ सुन।
चंचलता किरणों से लेकर
ओढ़ ओढ़नी आई।
तारों के....

सिंदूरी सपने फिर चहके
दीप जले मन आँगन।
बिन बारिश के बरसा है कब
प्रेम भरा यह सावन।
आस मिलन की राह देखती
छोड़ रही तरुणाई।
तारों के....

नींद खड़ी दरवाजे कबसे
पलकें लेकर भारी।
देख चला चंदा भी थककर
सूनी गलियाँ सारी।
भोर लालिमा धीरे से फिर
ले उठी अंगड़ाई।
तारों के.....

*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार

Thursday, December 9, 2021

कहमुकरी छंद (शतक)

चुपके-चुपके जब भी आता।
तन मन में है आग लगाता।
सहा न जाए उसका भार।
ए सखि साजन? ना सखि बुखार!
अँखियों में छुपके यह डोले।
पलकों में यह सबको तोले।
पल भर में वो लगता अपना।
ए सखि साजन? ना सखि सपना।
थोड़ा सकुचा थोड़ा सिमटा।
हर पथ पर रहता है लिपटा।
देख अँधेरे वो शरमाया।
ए सखि साजन ?ना सखि साया।
मेरे मन को यह अति भाया।
दुबली-पतली इसकी काया।
मन करता है ले लूँ बोसा।
ए सखि साजन? ना सखि डोसा।
ठंड लगे तो याद सताए।
बिन उसके फिर रहा न जाए।
बात बिना उसके सब  बिगड़ी।
ए सखि साजन? ना सखि सिगड़ी।
भोर अँधेरे यह जग जाए।
सारे घर को फिर महकाए।
कौन भला उसको है भूला।
है सखि साजन? ना सखि चूल्हा।
मंद-मंद जब वो मुस्काता।
सब सखियों के मन को भाता।
उसकी सूरत पर बलिहारी।
का सखि साजन? नहीं मुरारी।
मेरे मन को बहुत सुहाए।
पल भर दूरी सही न जाए।
साज छेड़ता है वो अँगना।
का सखि साजन? ना सखि कँगना।
गोल-मोल सी इसकी काया।
देख सभी का मन ललचाया।
सही न जाए इससे दूरी।
का सखि साजन? ना सखि पूरी।
१०
जाए जब यह अच्छा लगता।
वापस आए तो दिल दुखता।
नहीं सुहाए इसका आना।
ए सखि बैरी? ना सखि ताना।
११
सुंदरता मन को अति भाए।
भांति-भांति के रंग दिखाए।
गोल-गोल करता वो घूमर।
ए सखि साजन? ना सखि झूमर!
१२
काटे छांटें फिर सिल जाए।
तरह-तरह के भेष बनाए।
पूरा करता वो सब मर्जी।
ए सखि साजन? ना सखि दर्जी!
१३
जब भी इसको होंठ लगाऊँ।
मुखड़ा देखूँ तो शरमाऊँ।
उसकी जगह न होती खाली।
ए सखि साजन? ना सखि लाली!
(लाली-लिपिस्टिक)
१४
मेरे हाथों लिपटा जाए।
हर विपदा से मुझे बचाए।
मन्नत की भरता वो झोली।
ए सखि साजन? ना सखि मोली!
१५
रूठे तो भी राग सुनाए।
खुश होकर भी शोर मचाए।
लगता जैसे वो है मूड़ी।
ए सखि साजन? ना सखि चूड़ी।
१६
छेड़े मुझको छूकर जाए।
उड़ती चूनर लट लहराए।
उसके साथ करें सब गरवा।
ए सखि सजनी? ना सखि पुरवा।
१७
बीच राह में जब मिल जाए।
देख उसे मन तब घबराए।
कौन भला उससे है जीता।
का सखि साजन? ना सखि चीता।
१८
झुमका चूड़ी बिछिया पायल।
बिन इसके कब करते घायल।
देख उसे मन हुआ अधीरा।
का सखि साजन? ना सखि हीरा!
१९
सावन में पुरवा लहराई।
सौंधी सी खुशबू ले लाई।
याद करे मन बनता पाखी।
का सखि साजन? ना सखि राखी!
२०
रोज सवेरे उठकर आता।
साँझ ढले अपने घर जाता।
रहता है वो कैसा तनकर।
का सखि साजन? ना सखि दिनकर!
२१
नीलगगन में फिरता रहता।
रात अँधेरी फिर भी बहता।
लगता है मुझको वो पागल।
ए सखि चंदा ? ना सखि बादल!
२२
रंगत उसकी श्यामल प्यारी।
भली लगे अम्बर की क्यारी। 
देख उसे सबका मन हर्षा।
ए सखि साजन ? ना सखि वर्षा!
२३
फूली फूली लगती न्यारी।
सबके मन को भाए प्यारी।
जी करता मैं करलूँ चोरी।
ए सखि साजन? नहीं कचोरी।
२४
परतें खुलते मैं रो जाऊँ।
फिर भी उससे मोह लगाऊँ।
समझ न आए इसका राज।
ए सखि साजन? नहीं सखि प्याज।
२५
चलती जब भी तो यह झूमे।
बार-बार गालों को चूमे।
रोज लगाए ऐसा ठुमका।
ए सखि साजन? ना सखि झुमका!
२६
महल त्याग बन फिरती जोगी।
विरहा की हर पीड़ा भोगी।
लेकर भटके वन वो हीरा।
ए सखि सजनी?ना सखि मीरा!
२७
घुल-मिल अपनी छाप दिखाए।
सबके जीवन को महकाए।
खुशियों लेकर बहे वो नदी।
ए सखि सजनी? ना मेंहदी!
२८
डाल कूकती कोयल आई।
आहट सुन महकी अमराई।
त्योहारों में वो है खास।
ए सखि साजन? नहीं मधुमास!
२९
हर विपदा से वो लड़ जाए।
दुख पीकर हरदम मुस्काए।
उसकी बातें भूल-भुलैया।
ए सखि साजन?ना सखि मैया!
३०
पद पंकज देख मंडराए।
गुनगुन करके गीत सुनाए।
साँझ देखकर जाता घबरा।
ए सखि साजन? ना सखि भँवरा!
३१
कोमल हाथों से जब मढ़ता।
सुंदर सलोना रूप गढ़ता।
सूरत से वो लगता ढाँचा।
का सखी साजन ? ना सखि साँचा!
३२
जीवन में फीकापन देकर।
जाए रस वो सारे लेकर।
उसके बिन सब लागे सीठा।
का सखि साजन ? ना सखि मीठा!
३३
सूने घर में जब इतराए।
रंग-बिरंगे रंग सजाए।
लागे वो खुशियों की सूची।
ए सखि साजन? ना सखि कूची!
३४
छूकर जब भी तन को जाए।
मन से फिर वो छाप न पाए।
लिए फिरे वो नियत तिरछी।
ए सखि साजन ? ना सखि बरछी!
३५
चढ़े जवानी को इतराए।
सब पर अपनी धौंस जमाए।
अकड़े वो जैसे हो लाठी।
का सखि साजन? ना सखि काठी!

काठी-शरीर
३६
सबकी रक्षा में वो रहता।
गर्मी सर्दी बारिश सहता।
जान लुटाए वो मनमौजी।
का सखि साजन? ना सखि फौजी!
३७
झूठ भरी जब परतें चढ़ती।
खींचतान में फिर वो बढ़ती।
चुभती उससे मन में रातें।
ए सखि साजन? ना सखि बातें।
३८
विचलित होता मन जब सुनता।
टूट गए फिर सपने बुनता।
व्याकुल करती है ध्वनि उसकी।
ए सखि साजन? ना सखि सिसकी!
३९
सबके मन को बहुत चलाए।
जीवन पथ से वो भटकाए।
पार न कोई उससे पाया।
ए सखि साजन ? ना सखि माया!
४०
घूमे नाचे फिर लहराए।
धीमे-धीमे गीत सुनाए।
उस-सा है क्या कोई सानी।
ए सखि साजन?नहीं मथानी!

मथानी-दही से मक्खन निकालने वाली रई।
४१
गोल-मोल सा रूप बनाए।
देख सभी का मन हर्षाए।
महके जब वो सौंधी मिट्टी।
ए सखि साजन? ना सखि लिट्टी!

लिट्टी-बाटी
४२
कोमल हाथों से जब मसले।
मचल मचल कर फिर वो फिसले।
फिर भी कभी न देता धोखा।
ए सखि साजन?ना सखि चोखा!

चोखा- भरता
४३
झूम झूमकर मुझे चिढ़ाए।
देख उसे मन फिसला जाए।
लागे वो मुझको बस बैरी।
ए सखि साजन ? ना सखि कैरी!
४४
देख उसे मन लालच आए।
आपस में झगड़े करवाए।
रिश्ते पर भारी है वो हर।
ए सखि साजन? ना सखि मोहर!
४५
देखूँ जब भी नींद उड़ाए।
छूने मन आतुर हो जाए।
नयनों में स्वप्न सा वो रखा।
ए सखि साजन? ना सखि नौ लखा!
४६
हाथ अकेला सभी घुमाएं।
साथ बँधे तो उठा न पाएं।
भारी होता वो बना गट्ठा।
ए सखि साजन? ना सखी लठ्ठा!
४७
छोटा-सा वो लगता प्यारा।
हाथों में कोमल-सा न्यारा।
देख उसे मन प्रेम है पला।
ए सखि साजन?ना सखि झबला!

झबला-बच्चे का वस्त्र
४८
उससे जीवन डोर कसी है।
नयनों में बस प्रीत बसी है।
वो ही गीता अरु रामायण।
ए सखि साजन?ना नारायण!
४९
रोए जब व्याकुलता छाए।
हँसता देखूँ मन खिल जाए।
प्यारा लागे उसका चलना।
ए सखि साजन?ना सखि ललना!
५०
जब आए तो प्रेम भगाए।
मन में कड़वा द्वेष जगाए।
सुख पर रखता वो अवरोध।
ए सखि साजन? ना सखि क्रोध?
५१
सुंदर सी छोटी है काया।
ऊपर वाले की है माया।
देख उसे मुख निकले मैया।
ए सखि साजन? नहीं बरैया!
५२
देख उसे जब मन भय खाए।
तन पर अपना चिह्न बनाए।
मन की हिम्मत भी वो तोड़ा।
ए सखि साजन? ना सखि कोड़ा!(हंटर)
५३
धूप ताप से रक्षा करता।
बारिश में झरने सा झरता।
आँधी देख वो जाए झरा।
ए सखि साजन?ना सखि छपरा!
५४
जब भी देखें शीश घुमाए।
गुस्से में फिर दौड़ा आए।
मुझको वो कुछ लगता टेढ़ा।
ए सखि साजन? ना सखि मेढ़ा!
५५
ऊँचे-नीचे रस्ते घूमे।
वेग बढ़े तो वन-वन झूमे।
खेल दिखाए वो बन नटिनी।
ए सखि नारी?ना सखि तटिनी!
५६
सबकी चाहत उसको पाना।
सुंदर सा फिर रोज सजाना।
सुख देता वो बन देवालय।
ए सखि साजन?ना सखि आलय!
५७
राजा सा जब चलकर आता।
भाल पसीना छलका जाता।
देख उसे न लाँघें देहरी।
ए सखि साजन? ना सखि केहरी!
५८
दिनभर सबसे छुपकर सोता।
साँझ ढले तो चुपके रोता।
भोर देख वो बनता भग्गू।
ए सखि साजन?ना सखि घुग्गू!
५९
लहरों पर उतराता आए।
माल ठिकाने पर पहुँचाए।
लिया समाधि जो उसे छेड़ा।
ए सखि साजन?ना सखि बेड़ा!

*बेड़ा-जहाज या बाँस का बना टट्टर*
६०
माटी पाए तो खिल जाए।
अपना फिर आकार बढ़ाए।
दिन दूना वो बढ़ता तीजा।
ए सखि साजन?ना सखि बीजा!
६१
जब भी मेरे घर में आए।
पाने की मन आस जगाए।
उसकी भाए सुंगध बड़ी।
ए सखि साजन?ना सखि सपड़ी!
६२
कड़ी धूप में उसको पाला।
खून पसीना उसमें डाला।
मिटता वो जब मचता हल्ला।
ए सखि साजन? ना सखि गल्ला!
६३
पढ़कर उसको आगे बढ़ते।
ऊँची-ऊँची सीढ़ी चढ़ते।
उसकी बात न लागे थोथी।
ए सखि साजन? ना सखि पोथी!
६४
जीवन की जब धुन में रहता।
सपनों की पुरवा-सा बहता।
समय मिटे वो बनता गठरी।
ए सखि साजन? ना सखि ठठरी!
६५
उसका वार न खाली जाए।
जो खाए रोता पछताए।
भारी उसका है भार सदा।
ए सखि साजन? ना सखि गदा!
६६
हाथों से जब कोमल मढ़ता
भिन्न-भिन्न रूपों में गढ़ता।
करता मन वो लालच पैदा।
ए सखि साजन? ना सखि मैदा!
६७
रंग सलोना मन को भाए।
सुख शांति घर में ले आए।
रहता चुप-चुप वो है गूंगा।
ए सखि साजन?ना सखि मूँगा!
६८
रात-रात भर जब वो जागे।
देख उसे अरि डरकर भागे।
धूप ताप सब उसने भोगा।
ए सखि साजन? नहीं दरोगा!
६९
हाथों से वो जकड़ा जाए।
आड़ा तेड़ा मोड़ घुमाए।
उसका लागे सुंदर ढाँचा।
ए सखि साजन? ना सखि खाँचा!

खाँचा-टोकरा,झाबा।
७०
बूढ़ा, बच्चा या हो छोरा।
गाँठ बँधी तो खुले न बोरा।
देखे छोर गड़ा के पुतली।
ए सखि साजन? ना सखि सुतली!
७१
बाँधे पीछे पक्के धागे।
अंदर बाहर करता भागे।
काम नहीं करता वो दूजा।
ए सखि साजन? ना सखि सूजा!
७२
सुनकर बातें जी घबराए।
बीते रैना नींद न आए।
उन्हें देख के काँपे गुर्दे।
ए सखि साजन?ना सखि मुर्दे!
७३
छुए प्रीत से अच्छा लागे।
वार करे तो फिर दुख जागे।
पकड़ छुरा वो करता गंजा।
ए सखि साजन? ना सखि पंजा।
७४
जबसे डाली उसने छाया।
लिया लपेटे अपनी माया।
देख उसे मन होता खुटका।
ए सखि साजन?ना सखि गुटखा!
७५
भाँति-भाँति के खेल सिखाए।
सपनों सा संसार दिखाए।
वो छोड़े कब किसे अकेला।
ए सखि साजन? ना सखि मेला!
७६
भूख लगे तो छत पर आए।
खिड़की झाँके शोर मचाए।
उसको जरा न भाए छैना।
ए सखि साजन? ना सखि मैना!
७७
मीठे-मीठे फल है खाता।
बातों को रहता दुहराता।
उसको भाए तीखा चुग्गा।
ए सखि साजन? ना सखि सुग्गा!
७८
सुंदर रूप सलोना प्यारा।
सबसे अच्छा सबसे न्यारा।
उसको भाए मिर्ची महुआ।
ए सखि साजन? नहीं सखि सुआ!
७९
रात खुले में रोज बिताए।
ठंडा शीतल नीर पिलाए।
उसके पीछे सब हों पागल।
ए सखि साजन?ना सखि छागल!
८०
फूँक मार जब आग जलाए।
सबके आँखों को अति भाए।
उसे पकड़ने मुड़ती कुहनी।
ए सखि साजन?ना सखि फुकनी!
८१
सुबह-सवेरे सामने आता।
मन के भीतर खुशी जगाता।
गुण मिठास फैलाए वो बस।
ए सखि साजन? ना सखि गोरस!

बसोरा पूजन में गुड़ और गाय की छाछ से बनने वाला मीठा पेय।
८२
धीरे से वो घर में आए।
सारे तन में टीस जगाए।
देख उसे मन में भय पसरा।
ए सखि साजन? ना सखि खसरा!
८३
उसका है हर रूप सुहाना।
बात सही यह सबने माना।
रहता नहीं कभी वो कोरा।
ए सखि साजन? ना सखि होरा!

होरा-हरे चने की बाली जिसे आग में भूनकर खाते हैं।
८४
आड़ी टेढ़ी उसकी काया।
रूप निराला मन को भाया।
पकडूँ तो लागे वो लकड़ी।
ए सखि साजन? ना सखि ककड़ी!
८५
रूप निराला सबको भाए।
मन मंदिर में प्रीत जगाए।
देख उसे मन बनता तितली।
ए सखि साजन? ना सखि टिकली!

टिकली-बिंदी
८६
देख उसे नयना हर्षाते।
उस पर अपनी प्रीत लुटाते।
बँधा प्रेम के वो फिर कुंदे।
ए सखि साजन?ना सखि बुंदे!

बुंदे-कान में पहनने वाले टोप्स।
८७
अपनी धुन में बहता जाए।
मधुर सुरीले गीत सुनाए।
उसकी राह न रोके खम्बा।
ए सखि साजन? ना सखि बम्बा!

बम्बा-छोटी नहर
८८
रातों को वो साथ सुलाए।
सर्दी गर्मी दूर भगाए।
देख उसे मुस्काए मैया।
ए सखि साजन? नहीं मड़ैया!
८९
झूम झूमकर मुझे चिढ़ाए।
सुंदरता मन को अति भाए।
अंतस में वो डेरा डाले।
ए सखि साजन?ना सखि झाले!

झाले-कान में पहनने वाला आभूषण।
९०
रात ढले जब उसको पाऊँ।
सारे दिन की थकन मिटाऊँ।
बिन उसके मुख निकले दय्या।
ए सखि साजन?ना सखि शय्या!
९१
नाप-तौल वो सबकी करता।
मँहगा सस्ता कभी न डरता।
करे काम वो सदा ही खुला।
ए सखि साजन?नहीं सखि तुला!
९२
हाथों में जब मेरे आए।
उठापटक कर शोर मचाए।
पीटे फिर वो पत्थर गुट।
ए सखि साजन? ना सखि दुरमुट!

दुरमुट-पत्थर कूटने वाला औजार।
९३
दुबला-पतला सा वो लंबा।
दिखता ऐसा जैसे खंबा।
काम करे वो सबसे अव्वल।
ए सखि साजन?ना सखि सब्बल!

सब्बल-मिट्टी खोदने का औजार।
९४
ऊपर से वो नरम मुलायम।
अंदर से मजबूती कायम।
गुण उसमें है जरा न मीठा।
ए सखि साजन?ना सखि रीठा!
९५
लगता उसका रूप सुहावन।
गुण उत्तम दिखता मनभावन।
देख उसे बीमारी भागी।
ए सखि साजन?ना सखि रागी!

रागी-राई जैसा धान्य जिसकी रोटी बनती है ‌।
९६
उसके बल बगिया है हँसती।
कलियों में सुंदरता बसती।
उसे देख झूमे हर डाली।
का सखि साजन...?ना सखि माली।

९७
भीगे जल रंगत छुप जाए।
चिकना सुंदर रूप बनाए।
ठंडक पर उसका है कब्जा।
ए सखि साजन?ना सखि सब्जा।

सब्जा-चिया सीड।
९८
देख उसे डरती बीमारी।
ऐसे उसके गुण शुभकारी।
पीड़ा सारी उसकी बंधक।
ए सखि साजन?ना सखि गंधक!
९९
जो भी इसके चक्कर आए।
उसको फिरकी नाच नचाए।
देख उसे बढ़ती बेचैनी।
ए सखि साजन ना सखि खैनी!

खैनी- तम्बाकू

१००
जब भी इसको घर में पाऊँ।
पाने को आतुर हो जाऊँ।
गुण का है वो चलता गट्ठा।
ए सखि साजन?ना सखि मठ्ठा!

*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
 
 

Friday, October 22, 2021

मंगल बेला


 करवाचौथ

मेहंदी रच के मुस्काती
बिंदिया माथे पर दमके।
कँगना बोले हाथों का फिर 
कुमकुम माथे शुभ चमके।

ढूँढ रहे कजरारे नयना
चंदा छुपकर मुस्काए।
लहराती चूनर जब सजनी
अम्बर का मन हर्षाए।
छनक रही पायल पैरों में 
धूम मचाती है जमके।
कँगना बोले……

वेणी बन झूले बालों में
पुष्प मोगरा भी महके।
देख समय की चंचलता को
पुरवा का मन भी चहके।
होंठों पर की लाली सजती
तार छेड़ती हर मन के।
कँगना बोले……

छलनी दीपक चढ़के बैठा
रूप सजाए मनभावन।
आस गगन का आँगन घूमे
आज दिवस सबसे पावन।
बदली पीछे हँसता चंदा
अश्रु हर्ष के जब छलके।
कँगना बोले……

चूड़ी खुश हो बोल उठी फिर
मंगल बेला है आई।
करवा हाथों में इठलाया
झूम रही है पुरवाई।
अर्घ्य चढ़ाने आतुर होती
सभी सुहागन बन-ठन के।
कँगना बोले.....

*अनुराधा चौहान'सुधी'*

Tuesday, October 12, 2021

विधाता का लेख


कर्म भूलता फिरता मानव
झूठ किए है सिर धारण
सत्य राह से विमुख हुआ तो
क्रोध बना है संहारण।

लेख विधाता का है पक्का
जो बोया है वो पाया।
सीख बुराई मन में पाले
सुख सारे ही खो आया।
चाल धर्म से अलग हुई तो
ज्ञान हुआ मन से हारण।
कर्म भूलता...

सहनशीलता दान धर्म से
तेज कर्ण सा चमका था।
जीवन की करनी जब बिगड़ी
पाप नाश बन धमका था।
भूल गया जब राह धर्म की
शुरू हुआ जीवन मारण।
कर्म भूलता....

आज मनुज की गलती सारी
मौत बनी अब डोल रही।
अनजाने ही क्रोध सहे फिर
ज्ञान चक्षु को खोल रही।
हतप्रभ हो सब जगती बैठी
दोष आज हर ले तारण।
कर्म भूलता....

भाई भाई का बैरी बन
एक दूजे पर वार करें।
रक्त धरा पे बहे नदी सा
मन में सबने द्वेष भरे।
चक्र फँसा सब मंत्र भूलता
लगा शाप या गुरु कारण।
कर्म भूलता......
अनुराधा चौहान'सुधी' स्वरचित✍️ 

Wednesday, September 1, 2021

पिपासा


 पिपासा ज्ञान की मन में,विधाता आज तुम भर दो।
अँधेरा दूर हो जाए,कृपा ऐसी जरा कर दो।
मिटे मन मैल भी सारे,करे कुछ काम हम ऐसा।
मिटे हर लालसा मन से,विधाता आज यह वर दो।

चलें सच के सदा पथ हम,बुराई छोड़ जब पीछे।
भरे जीवन उजालों से,अँधेरे त्याग सब पीछे।
कृपा से आपकी कण्टक,हटाए हैं सभी पथ के।
उजाले ज्ञान के उत्तम, हटाते भार तब पीछे।

भरोसे आपके बढ़ते,विधाता साथ तुम रहना।
जला मन दीप सुखकारी,बने विश्वास ही गहना।
हटे दुख की तभी बदली,खिलेगी धूप आशा की।
घनी काली निशा में भी,नहीं पीड़ा पड़े सहना।

तुम्हारा हाथ हो सिर पर,हटे हर बोझ फिर मन से।
चलें सच राह तब तक हम,मिटेगी साँस जब तन से
मिटे हर लालसा मेरी,कृपा ऐसी दिखाना तुम।
करेंगे हम सभी मिलके,बुराई दूर जीवन से

©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित
चित्र गूगल से साभार



Friday, August 13, 2021

रिक्त पाती

 


चाँद टीका नभ सजाए

गीत गाए प्रीत के।

देख शरमाई धरा भी

धुन सुनाए रीत के।


चाँदनी भी मौन ठिठकी

बिम्ब देखा झील जो।

राह का पत्थर सँवरता

अब दिखाता मील जो।

चूड़ियाँ भी पूछती क्या

पत्र आए मीत के।

चाँद टीका……


कालिमा मुखड़ा छुपाए

भोर से शरमा रही।

रश्मियों को साथ भींगी

फिर पवन इठला बही।

बोलती रच दे कहानी

भाव लेकर नीति के।

चाँद टीका……


शब्द ढूँढे एक कोना

रिक्त अब पाती पड़ी।

लेखनी रूठी हुई है

आस कोने में खड़ी।

लेखनी को फिर मनालो

भाव लिख दो गीत के।

चाँद टीका……

अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित

चित्र गूगल से साभार



Sunday, August 8, 2021

बूँदों की थिरकन


अंक लपेटे बहता पानी 
भिगा रहा धरती आंचल
प्रीत मेघ की बरस रही है
अँधियारे का रच काजल।

नृत्य दिखाती चपला गरजे
चाँद देख यह छुप जाए।
बूँदो की थिरकन टपरे पर
ठुमरी सा गीत सुनाए।
और नदी इठलाती चल दी
कर आलिंगन सागर जल।
अंक लपेटे...

निर्झर छाती चौड़ी करके
गान सुनाते मनभावन।
पत्थर की मुस्कान खिली फिर
पुष्प महकते निर्जन वन।
मेघ दिवाकर का रथ रोके
लिए खड़ा किरणों का हल।
अंक लपेटे...

सौरभ लेकर झूम रही है
सोई थी जो पुरवाई।
साँसों का कंपन अब जागा
मन पे छाई तरुणाई।
वसुधा अब शृंगार सजा के
भूली बंजर था जो कल।
अंक लपेटे...
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार

Friday, August 6, 2021

वेदना के शब्द गहरे


 वेदना के शब्द गहरे
भीत सिसके सुन कहानी।
आँसुओं के बाँध तोड़े
पीर बहती अब पुरानी।

रंग सारे दूर भागे
जब कलम ने फिर छुआ था।
झूठ दर्पण बोलता कब
चित्र ही धुँधला हुआ था।
पूछती है रात बैरन
ढूँढती किसकी निशानी।

नित झरोखे झाँकती सी
चाँदनी फिर आज पूछे।
अंक अँधियारा लपेटी
बात क्या है राज पूछे।
सिलवटें हर रात रोती
भोर आए कब सुहानी।

दे रही दस्तक हवाएँ
शीत अब गहरी हुई है।
फिर कुहासा खाँसता सा
अंग में चुभती सुई है।
आग अंतस की जले अब
डालता फिर कौन पानी।
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार

Thursday, July 22, 2021

अवसर


 आशाएं अब हाथ पसारे
चलो ढूँढते शुभ कोना।
दूषित मन की इस नगरी में
बीज प्रेम का फिर बोना।

अम्बर के आनन में बैठा
 उजास रवि अंतस करता।
तमस मिटाने आती रजनी
चंदा शीतल मन भरता।
घोर निशा जीवन में आए
तम से आतुर मत होना।
आशाएं......

बाधाओं की गठरी फेंको
भय को रखदो ताले में।
हिम्मत के फिर तोरण लेकर
चलो लगाएं आले में।
मन का आँगन ठोस बनाओ
नहीं पड़ेगा फिर रोना।
आशाएं......

आज चेतना मन की जागी
कण्टक पथ पीछे छूटा।
बरसों से जो शीश रखा था
गिर कुरीत पत्थर फूटा।
हाथ फैलाए खड़ा अवसर
देख इसे अब मत खोना।
आशाएं.....
अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार


Friday, July 16, 2021

पलायन

आग पेट की आज जलाए 

कलह मचाकर अति दुखदायन।

संतोष मिटा मेटे खुशियाँ

भूख बनी है ऐसी डायन।


चूल्हे खाली हांडी हँसती

अंतड़ियाँ भी शोर मचाए।

तृष्णा सबके शीश चढ़ी फिर

शहरी जीवन मन को भाए।

समाधान से दूर भागते

चकाचौंध के डूब रसायन।

आग....


बंजर होती मन की धरती

विपदा जब-तब खेत उजाड़े

प्रलोभनों के बीज उगी अब

खरपतवारें कौन उखाड़े

माटी की सब भीतें ढहती

आँगन आज नहीं सुखदायन।

आग..


खलिहानों की सिसकी सुनकर

रहट नहीं आवाजें देता।

कर्ज कृषक की खुशियाँ छीने

झोली अपनी भरते नेता।

दुख हरने जीवन के सारे

कब आओगे हे नारायण

आग...


बैलों की घण्टी चुप बैठी

दिखता नहीं बजाने वाला।

अंगारों पर बचपन सोता

गले पहन काँटो की माला।

सूखी माटी पर हल चीखें

कोई रोके ग्राम पलायन।

आग....

©® अनुराधा चौहान'सुधी'✍️

चित्रकार-रेणु रंजन गिरी

हाइकु-३

 

1

भादों मध्यान्ह~

इंद्रधनुष देखता

प्रेमी युगल।

2

बारात द्वार~

पंडाल में तैरते

जूते-चप्पल।

3

हल्दी की रस्म~

पीली चिट्ठी टुकड़े

वर के हाथ।

4

शरद साँझ~

माँ अलाव में डाले

नीम पत्तियाँ।

5

डोली में वधू~

खोमचे से उठती

टिक्की सुगंध।

6

जेठ मध्यान्ह~

कूटती लाल मिर्च 

ओखली में माँ।

7

जाह्नवी तट~

पेड़ पर उकेरा

प्रेमी का नाम।

8

संगम घाट~

उकेरा रेत पर

प्रेमी का नाम।

9

शीतलहर~

मूँगफली की उठी

चौका से गंध।

10

पौष मध्यान्ह~

दादी के पोटली से

सपड़ी गंध।

11

जेठ मध्यान्ह~

गुल्ली डंडा से फटा

वृद्ध का सिर।

12

मेथी के दाने~

चौका से आती गंध

गुड़ सौंठ की।

13

कुहासा भोर~

मधुशाला में मारी

पत्नी बेलन

14

मावस रात्रि~

जर्जर हवेली में

गादुर स्वर।

15

जेठ मध्यान्ह~

महिला की पीठ पे

गन्ने का ढेर।

16

तारों की आभा~

तंबू भीतर गूँजी 

घुँघरू ध्वनि।

17

कुहासा भोर~

बाला तिरंगा बीनी 

स्कूल द्वार से

18

पौष मध्यान्ह~

रसोई में बनायी 

माँ तिल पट्टी।

19

कुहासा भोर~

छिंदरस की आई

चौका से गंध।

20

पहाड़ी पथ~

ग्वार पाठा के पत्ते

वैद्य झोली में

21

गेहूँ के दाने~

कबूतर का चूजा

दबोचे श्वान।

22

भोर लालिमा~

राख से अस्थि बीनी

युवा बिटिया।

23

 जेठ मध्यान्ह~

टीन छत पे गूँजी

बूँदों की टप।

24

जेठ मध्यान्ह~

विद्युत द्युति संग

मेघ फुहार।

25

अषाढ़ भोर-

मोर नृत्य देखते

बाल समूह

26

नदी का तट-

सूर्यास्त देख रहा

प्रेमी युगल।

27

चैत्र मध्यान्ह~

पलाश फुगनी पे

भ्रमर गूँज।

28

जेठ मध्यान्ह~

शुष्क धरा पे गिरी

वर्षा की बूँद।

29

बसंत भोर~

टूटे अण्डे से गूँजे

चिरप स्वर।

30

गाँव में बाढ़~

प्रसूता की गोद में

किलकी स्वर।

31

जेठ मध्यान्ह~

कृशकाय बैल पे

छड़ी प्रहार।

32

झील का तट~

अजगर मुख में

बत्तख चूजा।

33

जेठ मध्यान्ह~

गन्ना रस के साथ

लहू मिश्रण।

34

भोर लालिमा ~

रेल द्वार पे झूला

नवयुवक ।

©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍

चित्र गूगल से साभार

Thursday, July 15, 2021

हाइकु-२


 1
चाँद का बिंब
सजन के नैन में ~
पुष्प सुगंध
2
चिकित्सालय~
पुरानी पोटली में
नीम के पत्ते ।
3
कस्तूरी गंध
कानन कंदरा में~
अहेरी लाश
4
हिना के पात -- 
दुल्हन आँगन में
शहीद पिया ।
5
पतंगबाज~
पखेरू का पखौटा
मांझे में फँसा
6
श्वेत शिला में
अंकित प्रेम कथा~
ताजमहल ।
7
वृद्ध की थैली- 
सरसों साग संग
मक्के की रोटी
8
भोर की बेला-
आँगन के नीड़ में
नन्हे परिंदे 
9
बच्चे के हाथ 
पटबीजना पंख ~
रात्रि प्रहर
10
नल की टोंटी
पर बैठी चिड़िया ~
निर्जन गली
11
माटी की झुग्गी~
द्वार पे काढ़ती माँ
गेरू के चित्र।
12
खेल मैदान~
कीलाल के छत्ते को
जा लगी गेंद।
13
शराब गंध~
दुल्हन ने रोक दी
फेरे की रस्म।
14
दाह संस्कार~
पति लिए हाथों में
मोगरा लड़ी।
15
अचार गंध~
बालिका के हाथ में
मिट्टी का घड़ा 
16
माँ की गोद से
राह पे गिरा शिशु~
पटाखा ध्वनि।
17
धान के खेत~
पत्नी की टोकरी से
मिष्ठान गंध।
18
धूल की गंध ~
अबोध के हाथ में
छैनी-हथौड़ी।
19
भोर की बेला~
शादी के दिन पर्चा
दे रही वधू ।
20
पूस की रात~
अखबार ओढ़ के
सोता बालक।
21
जेठ मध्यान्ह~
किले की प्राचीर पे
दिव्यांग जोड़ी
22
पूस की रात~
बाला लेकर बैठी
 बर्तन ढेर
23
दादी का कक्ष~
माटी की गुल्लक में
सिक्के की ध्वनि।
24
भोर की बेला~
चौके से आती ध्वनि  
झपताल की।
25
भोज्य सामग्री
उद्रगविमान में~
नदी में शव
26
भोर की बेला~
पोता करे दादा के 
चरणस्पर्श।
27
घर में सर्प~
मेले से सपेरे की
गूँजती बीन।
28
बाल उद्यान~
कबूतर शव पे
मुँगी का झुंड।
29
जेठ मध्यान्ह~
नन्हे शिशु संग माँ 
चूड़ी बेचती।
30
चौंका से आती
तिल गुड़ की गंध~
कुहासा भोर।
31
विवाहोत्सव~
तोहफे में निकली
प्याज टोकरी।
32
शरद साँझ~
भुने हरबरा की
कौड़ा से गंध।
33
कुहासा भोर~
सड़क पे बिखरी
हिमगुलिका।
34
कुहासा भोर ~
दहकते लोहे पे
हथोड़ी चोट।
35
अलकनंदा~
धार मध्य पकड़े
भाई को बाला।
36
संध्या लालिमा~
झरोखे से झाँकती
नव ब्याहता।
©© अनुराधा चौहान'सुधी'✍️
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, July 14, 2021

हाइकु-१


 १
जेठ मध्याह्न ~ 
बंजर भू पे खड़ी
वज्रकंटका
जुहू चौपाटी~
गोल गप्पे से आई
पुदीना गंध
कुहासा भोर~
अंगारों में सुलगा
शादी का जोड़ा
भादो की भोर~
बैल सींग पे पुष्प
माला घुँघरू।
प्रेम दिवस~
चोर की पोटली से
गुलाब गंध।
भादों मध्यान्ह~
बैल सींग पे गूँजा
घुँघरू हार।
संध्या लालिमा~
ओलावृष्टि में गूँजी
ढपली ध्वनि।
फाग पूर्णिमा~
पति की तस्वीर को
चढ़ाती हार।
फागुनी दोज~
भाई ने पकड़ाई
सफेद साड़ी।
१०
वैसाख भोर~
अमिया की सुगंध
सिलबट्टे से ।
११
कोरोना काल~
कूड़ा गाड़ी में भरी
भाजी टोकरी
१२
मेघ गर्जना~
खेत की मेढ़ पर
गिजाई झुंड।
१३
श्रावण भोर~
भाई की कलाई में
रेशम डोरी।
१४
अश्विनी भोर~
कागा की चोंच में
पनीर कोफ्ता।
१५
नदी में नाव~
मकड़जाल मध्य
जुगनू द्युति।
१६
नीड़ में चूजा~
दावानल में घिरा
कानन पथ।
©® अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार

Monday, July 12, 2021

रिक्त मधुवन


टूटती जब साँस तन से
प्राण करता मौन मंथन।
याद आते उस घड़ी फिर 
मौन हुए सारे बंधन।

नीर नयनों से छलकता
पूछती फिर प्रीत मन से।
क्यों मचलता आज ऐसे
कल फिरे अपने वचन से।
रोक लो आगे बढ़े पग
साँस महका आज चंदन।
टूटती जब आस....

मोह के बंधन पुराने
हाथ से कब छूटते हैं।
छोभ अंतस में पनपता
तार मन के टूटते हैं।
यूँ हथेली रोक लेती
चूड़ियों का मौन क्रंदन।
टूटती जब आस....

दीप सारे बुझ रहे जब
घेरती हर पल निराशा ।
रोशनी की चाह मरती
दूर होती रोज आशा।
लो झड़े फिर पुष्प सारे
सूखता है रिक्त मधुवन।
टूटती है आस.....
अनुराधा चौहान'सुधी'✍️
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, July 7, 2021

मनभावन सावन


 घिरी गगन घनघोर घटाएं,
सावन सुंदर मन भाया।
दादुर मोर पपीहा नाचें,
महिना यह पावन आया।

गूँज उठी हर गली-गली में,
आज सुहानी बम भोले।
काँवड लेकर निकल पड़े हैं,
शिव शंभू की जय बोले‌।

रेशम के धागे में लिपटा,
राखी बंधन यह न्यारा।
भाई जीवन के रिश्तों में,
गहना सबसे यह प्यारा।

गाँव गली में गीत गूँजते,
डाल पड़े सुंदर झूले।
शहरों में यह रीत पुरानी,
प्रीत सभी अपनी भूले।

टपक रहे हैं छप्पर टप-टप,
भीग रही है नव जोड़ी।
नयनों में चंचलता चमके,
गगन तले छतरी छोड़ी।

हरियाली धरती पर बिखरी,
कैसी सुंदर यह माया।
माटी की ले सोंधी खुशबू, 
मेघों का घन है छाया।

रंग समेटे कितने सारे,
मास सुहावन सुख लाया।
त्योहारों की धूम मची जब,
सबका मन है हर्षाया।
*अनुराधा चौहान'सुधी' स्वरचित ✍
चित्र गूगल से साभार

Monday, July 5, 2021

हृदय का क्रंदन


 शूल चुभे शब्दों के जहरी 
त्रस्त हृदय क्रंदन करता।
आस छुपाए अपना मुखड़ा
लोभ प्रेम मर्दन करता।

नोंच रहे कोपल जो खिलती
देख काँपती है धरती।
पीर बढ़ी अम्बर की ऐसी
मेघ बनी बूँदे झरती।
टूट रहा नीरव रातों में
स्वप्न कहीं नर्तन करता।
आस छुपाए………

साँझ समेटे अपनी चादर
ढाँक रही ढलती काया।
घोर निशा से मानव डरता
काल गढ़े ऐसी माया।
गिद्ध बने निर्बल को नोंचे
कौन कहाँ चिंतन करता।
आस छुपाए………

धूप ओढ़ के बचपन सोता
देख हँसे पग के छाले।
भूख धरा का आँचल ढूँढें
रीत गए घर के आले।
भाव बढ़ाती रोटी अपना
बोझ तले निर्धन मरता।
आस छुपाए………

*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*

Wednesday, June 23, 2021

सूने होते आले


 कुण्डी मन के द्वार लगाकर
सींच रहे घर का आँगन
प्रेम नगरिया सूनी होती
राह निहारे मन आनन।

भीत टटोले सबके मुखड़े
मौन लगाता है जाले।
कभी सजी थी खुशियाँ जिसमें
सूने दिखते वो आले।
अम्बर देख बहाए आँसू
खिला धरा पे पत्थर वन।
प्रेम नगरिया……

झाँक घरों में चंदा पूछे
कहाँ छुपी है मानवता।
क्रोध दामिनी का फिर फूटा
देख आज की दानवता।
जीवन काँप रहा है थर-थर
छोड़ प्राण भी भागे तन।
प्रेम नगरिया……

कंक्रीटों के बाग लगाकर
ढूँढ रहे सब हरियाली।
विष पीकर अब मीठे होते
फल लटके तरु की डाली। 
कण्टक के तरुवर को सींचा
पुष्प महकता कब उपवन।
प्रेम नगरिया……

*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*

Monday, June 21, 2021

टूटे हुए तारे


 टूटे हुए तारे
देख रोए मनुज करणी।
चिंता सरोवर में
चाँदनी डोलती तरणी।

ग्रसती सभी खुशियाँ
कालिमा रात की काली।
छुपती दिखे रजनी
मौत की देख दीवाली।
आहत हुआ अम्बर
और व्याकुल हुई धरणी।
टूटे हुए तारे......

राहें सिसकती सी
चीखती गाड़ियों की धुन।
कागज लिखे साँसे
बेचता रोज ही अब सुन।
सहमा हुआ घर भी
देख अब भीत भी डरणी।
टूटे हुए तारे......

पैसा बना पानी
आज बहता दिखे ऐसा।
सींचा हुआ जीवन
छोड़ता साथ अब कैसा।
डसती नियति खुशियाँ
और चरती रही चरणी‌।
टूटे हुए तारे......
©® अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार

Sunday, June 20, 2021

जड़ें बुराई की


 सभी सीखें सही बातें पढ़ें अच्छी पढ़ाई को,
चलो जीते सभी के मन लड़े सच की लड़ाई को, 

मिले सबको यहाँ खुशियाँ हमें ये काम करना है,
मिटाना है दिलों से अब सदा कड़वी बुराई को।

मिला है क्या मिलेगा क्या कभी सोचा कहाँ किसने,
भुलाना आज ही होगा हमें अपनी ढिलाई को।

बनेगा मन जरा सुंदर तभी प्यारी लगे जगती,
चलें जब साथ हम मिलके करेंगे इस भलाई को।

हटानी है उगी हैं जो जड़ें गहरी बुराई की,
कुठारी हाथ में लेलो चलो करने सफाई को।

मिलेगा क्या नहीं सोचो सभी आगे बढ़ो मिलके,
झुकेंगी देख ये आँखे डरो मत जग हँसाई को।

*अनुराधा चौहान'सुधी'*
चित्र गूगल से साभार
(गीतिका)मापनी 1222 1222 1222 1222


Friday, June 18, 2021

अहिल्या बाई होलकर

  
साधारण सी एक थी,बाला अद्भुत नेक।
सच्चे मन करती सदा,शिव का वो अभिषेक।
शिव का वो अभिषेक,पिता की बिटिया प्यारी।
कोमल मन के भाव, बड़ी सुंदर सुकुमारी।
कहती अनु यह बात, गुणों को करती धारण।
यश वैभव था नाम, नहीं थी वो साधारण।


नाम पिता मान्कोजी शिंदे ,
पाटिल कहलाते थे गाँव।
कन्या रत्न अहिल्या जन्मी,
रखते थे पलकों की छाँव॥१

चौंढी गाँव अहिल्या के घर,
मात-पिता की बढ़ती शान।
चंचल सुंदर सबकी प्यारी,
करती थी सबका सम्मान॥२

प्रश्न अनेकों बचपन से ही
करती सबसे वो संवाद।
नारी ही पीड़ा क्यों सहती 
करती इस पर वाद विवाद।३।

ठान लिया था उसने मन में
करना होगा यह बदलाव।
नारी के उलझे जीवन में
आए थोड़ा सा ठहराव॥४

शिव शंभू की घोर पुजारिन
देती थी बातों से मात।
तोड़ सभी बातों से लेकर
सच्चाई की करती बात।५।

तेज दमकता मुख मंडल पर
खेल रही सखियों के साथ।
भाग्य लिखा था प्रभु सोने से
किसने सोचा उसके हाथ।६।

एक नजर में राजा भाँपे
मेरे कुल की होगी शान।
आगे चलकर राज करेगी
रानी होगी एक महान।७‌।

देख परख सारे गुण उसके
कहते सबसे फिर मल्हार।
सारे जग में नाम करेगी
तोड़ बुराई का हर भार।८।

छवि अद्भुत इसकी लगे,प्रतिभा है भरपूर।
नाम करेगी मालवा,दिवस नहीं अब वो दूर॥
खांडेराव से विवाह कर,ले जाऊँ निज धाम।
करे होलकर वंश का,जग में ऊँचा नाम॥

अपने सुत से ब्याह रचाकर
सुख पाया मैंने यह आज।
तेज बहुत है इस बेटी में
हृदय खुशी के बजते साज।१०।

खंडेराव बना पटरानी
ले आए तब अपने साथ।
यश वैभव झुकते उस आगे
ईश्वर रखें सिर पर हाथ।११।

खांडेराव बड़े ही क्रोधी
करते थे उनका अपमान।
हँसके सहती क्रोध अहिल्या
पाया फिर हिस्से का मान।१२।

मान अहिल्या की बातें फिर 
राजकाज पर देते ध्यान।
सीख लिए रणकौशल सारे
राज मराठा बनकर शान।१३।

मालेराव पुत्र घर जन्मा
रजवाड़े की बढ़ती शान।
मुक्ता नाम रखा बेटी का
करते उसका सब सम्मान१४।

शिक्षा का अधिकार मिला फिर
जीवन का समझा सब सार।
अल्प समय सिंदूर मिटा फिर
सिर पर आया शासन भार.१५।

सिंदूर मिटा भू पर गिरी, टूट गया विश्वास।
ठान लिया होगी सती,बची न कोई आस॥
भोर अँधेरी हो गई,दुख बदली आकाश।
दिखता जीवन में नहीं,उजला कहीं प्रकाश॥

काल बना कुम्भेर युद्ध फिर
छीना रानी का शृंगार।
चलती साथ सती होने को
राह खड़े होते मल्हार।१६।

लाया था घर सोचकर,बदलोगी कटु रीति।
तुम सक्षम हर काज में,सीखो शासन नीति॥
नाम होलकर वंश का, तुमसे जाने लोग।
बदलो कड़वे नियम को,बने हुए हैं रोग॥

बेटी तेरी क्षमता जानूँ
थाम चलेगी जब तलवार।
मान तुझे हर ओर मिलेगा
होगी तेरी जय-जयकार।१७।

बात ससुर की मानी उसने
हाथ उठाई फिर तलवार।
बेटा सम समझा है मुझको
वचन निभाऊँगी हर बार।१८।

आप मुझे आशीष यही दो
खुश रख पाऊँ सारा देश।
दीन दुखी की सेवा करके
बदलूँ में सारा परिवेश।१९।

सीखे भेद सभी उसने फिर
करती सबका वो उद्धार।
साथ ससुर का भी फिर छूटा
झेल रही थी दुख का भार।२०।

दिव्य दमकती आभा उसमें
करती सबके हित में काम।
सबके मन में जगह बनाकर
ऊँचा करती जग में नाम।२१।

जीत लिया मन सबका उसने
साथ चली लेकर परिवार।
दीन दुखी की चिंता करती
दूर हटाती दुख का भार।२२।

*दुर्मिल सवैया*

सबकी सुनती मनकी करती,हरती जन पीर नहीं डरती।
सपने बिखरे अपने बिछड़े,जनमानस में खुशियाँ भरती।
शिव पूजन से सब काम शुरू,सबसे सुख काम सदा करती।
दुख आन खड़े जिसके पथ पे,सब दूर हटा दुखड़े हरती।

बच्चे भी परलोक सिधारे
देख रही थी सब असहाय।
जीवन में संघर्ष भरे थे
सुख को डसती किसकी हाय।२३।

सिंहासन जब रिक्त हुआ तो,
शीश अहिल्या आया भार।
विचलित होकर काम न होगा,
करनी होगी बाधा पार।२४।

रिपु दल भी आँखें टेढ़ी कर,
झाँक रहा था शासन ओर।
भाँप लिया रानी ने संकट,
देख रही थी चारों छोर।२५।

चिट्ठी लिख के पेशवा,माँगा शासन भार।
देखे थे यह एक दिन,स्वप्न ससुर मल्हार॥
रानी को शासन नहीं,सोचे मन कुछ लोग।
नारी कैसे राज का,संभाले उपयोग॥

हाथ प्रजा के सिर के ऊपर,
बैठ गई गद्दी इंदौर ।
तीखे तेवर देख हटे रिपु,
रानी का आया जब दौर।२६।

सेनानी थे वीर तुकोजी,
उनको सौंपा सारा भार।
संस्कारों का मान बढ़ाकर,
उत्तम गुण सिखलाती सार।२७।


रानी का परिवार मिटा फिर
वीर तुकोजी देते साथ।
बात अहिल्या को वो माने
बनके उनका बायाँ हाथ।२८।


देवी तुल्य अहिल्या बाई
उनकी होती जय-जयकार।
कूटनीति से चाल चले जब
रिपु दल की फिर होती हार।२९।


जान अकेली अबला नारी
राघोबा ने खेला दाँव।
सोचा कौन बचा है रक्षक
जो देगा रक्षा की छाँव।३०।


राघोबा फिर सेना लेकर
चढ़ आया नदिया के पार।
दूत कहे आकर रानी से 
रिपु दल लड़ने को तैयार।३१।


सुनकर बात अहिल्या बोली
हाथ उठालो सब तलवार।
रिपु दल को देकर संदेशा
कहना तेरी तय है हार।३२।



नारी से रण जीतने,आए लेकर आस।
हार मिले या जीत हो,तेरा जग उपहास॥
देती हूँ थोड़ा समय,करलो अभी विचार।
होनी है सम्मान की,तेरी रण में हार॥


नारी सेना से जीत गया, 
तो भी तेरा नीचा मान।
हार गया नारी से तो फिर,
मिट्टी मिल जाए सम्मान।३३।

विधवा दुखियारी जान मुझे,
तान खड़े होते तलवार।
नारी सेना कमजोर समझ,
करने आए हो संहार।३४।

करदी गलती ये घोर बड़ी,
किस कोने मुख जाओ ढाँप।
नारी से शासन छीन सको,
है बल तुममें यह भी भाँप।३५।

एक पत्र तीखा वार किया,
राघोबा ने मानी हार।
अपनी गलती को मान चला,
शीश बढ़े लज्जा का भार।३६।

रानी का संदेश पढ़ा जब
रिपु दल लौटा उल्टे पाँव।
युद्ध किए बिन रानी ने फिर
जीत लिया था अपना दाँव।३७।


कमजोर समझकर रानी से
राघोबा ने खाई मात।
चतुराई से शासन करती,
मीठे सुर में करती बात।३८।


एक नहीं जाने कितने जन
रानी से हारे हर बार।
पीड़ित की हर पीड़ा हरती
करती थी सबका उद्धार।३९।

दान-पुण्य कर सेवा करती
रखती दुर्बल से भी प्रीत।
नारी को सम्मान दिलाकर
जीवन में भरती संगीत।४०।

सुंदर बाग किले बनवाए,
चमक उठा था देश प्रदेश।
मंदिर घंटे गूँज रहे थे,
मिटते सारे मन से क्लेश।४१।

सुख बरसे शासन में उसके,
जनहित की सोचे हर रोज।
सच्चाई की रानी मूरत,
करती नित ही नूतन खोज।४२।

टूटे मंदिर फिर बनवाए,
खुलवाए थे बंद कपाट।
काशी की सुंदर नगरी में,
बनवाए थे सुंदर घाट।४३।

सोमनाथ से द्वारका,विश्वनाथ का धाम।
काशी गंगा घाट पर,गूँज रहा था नाम॥
मथुरा से वाराणसी,जगन्नाथपुरी धाम।
बनवाई फिर बावड़ी,किए अनेकों काम॥

घाट कुएँ मंदिर बनवाए,
नव आशा के फूँके प्राण।
गाँव नगर तक शिक्षा पहुँची,
विद्यालय का कर निर्माण।४४।

कितनी बावड़ियाँ बनवायी,
खुलवाए थे घर विश्राम।
हस्त कलाएं विख्यात हुई,
दीन दुखी को मिलता काम।४५।

रानी नेक महेश्वर की,करती कब आराम थी।
सदा होलकर वंश का,ऊँचा करती नाम थी॥
रण कौशल में होकर निपुण,देती सबको मात थी।
तेज झलकता था चेहरे, अद्भुत उसकी बात थी॥

सत्य सदा जिह्वा पर रहता,
शिवलिंग लिए रहती हाथ।
न्याय सदा ही सच्चा करती,
देती थी निर्बल का साथ।४६।

दृढ़ संकल्प किया जो उसने,
करती पूरा मन में ठान।
कुल की शान बढ़ाई उसने,
मिलता शुभ कर्मों का मान।४७।

वंशज कोई न रहा बाकी,
एक अकेली घर में नार।
चलती सच के पथ पे हरदम,
बातों में कैंची सी धार।४८।

पुण्य नर्मदा तट पर आकर,
कठिनाई सब करती पार।
व्यापार बढ़ाती कितने फिर,
शासन का करती विस्तार।४९।

राज धरोहर मानी उसने,
करती जनता का आभार।
जीवन सेवा में अर्पण कर,
बनती सबकी पालनहार।५०।

नारी भय से मुक्त करे फिर,
अंकुश कसके डाकू चोर।
शासन में खुशियाँ वो भरती,
बंद हुआ आतंकी शोर।५१।

आत्म प्रतिष्ठा जिंदा रखकर,
नव युग का करती आरंभ।
जाने कितने नगर बसाए,
सुविधा शिक्षा का प्रारंभ।५२।

संतान समझकर जनता को,
करती सारे दूर विवाद।
नारी सेना कमजोर नहीं,
दूर किया मन से अपवाद।५३।


इकलौता बेटा भी खोया,
खोया प्यारा फिर दामाद।
टूट गई थी अंदर लेकिन,
सुलझाती थी राज विवाद।५४।

वंश मिटा जब छोड़ गया था,
प्यारा पोता उनका साथ।
भूमि गिरी चित्कार करे फिर,
दुख लिखते प्रभु उसके हाथ।५५।

गंगाधर ने बहुत रचाएं,
षड़यंत्रों के काले काम।
चाल पलट कर रानी अपने,
कुल का करती ऊँचा नाम।५६।


भीलों गोडों से शासन की
रक्षा करती थी हर बार।
एक बहादुर योद्धा के सब
गुण उनमें थे अपरम्पार।५७।


धीरे-धीरे उसने अपनी,
छाप बनाई थी हर ओर।
नारी सत्ता धारण करके,
ला सकती है सुंदर भोर।५८।

छोटा-सा जीवन जीकर जब,
दामाद लिए अंतिम साँस।
बेटी होती संग सती फिर,
देख गले फंसी थी फाँस।५९।

रोक रही थी रो-रोकर पर,
बेटी हठ से मानी हार।
धीरे-धीरे उसने सबको,
रीत बुरी समझाया सार।६०।

खालीपन जीवन में लेकर,
मुस्कान लिए करती काम।
शिव का मुख पर ले नाम सदा ,
करती पूजन आठो याम।६१।

संतान समझ सब जनता की,
माता बनकर हरती पीर।
सुख में उनके वो खुश होती,
दुख देख भरे नयना नीर।६२।

कोई घर में और नहीं था,
जिसके बल पर चलता वंश।
दत्तक सुत मल्हारराव के,
वीर तुकोजी उनका अंश।६३।


अनदेखी करने की उनको,
रानी करती कैसे भूल।
सेनापति पद सौप तुकोजी,
लो संभालो भार समूल।६४।


विचार विमर्श करती उनसे,
अब वो ही थे बस परिवार।
राजा उनको गोद लिए थे,
करते थे बेटे सम प्यार।६५।


मान अहिल्या उनका करती,
शासन के बतलाती राज।
विश्वास भरा उनको लेकर,
सौंप दिए थे सारे काज।६६।



हाथी ऊपर बैठ के,लड़ती रानी वीर।
रण कौशल उसमें भरा,मन में रखती धीर॥
राजनीति आवेश में,करे न कोई काम।
सोच-समझ निर्णय करें, ऐसा उनका नाम॥

वीर अहिल्या ऐसी रानी,
जिसने मानी न कभी हार।
सहयोग सदा सेना करती,
रिपु दल पे हों तीखे वार।६७।

हाथी चढ़कर रण में उतरे,
तीरंदाजी से कर वार।
सम्मान सदा जीता उसने,
अभिमानी का कर संहार।६८‌।

बिजली सी तलवार चलाती,
शीश गिराए उसने काट।
दुर्गा रूप लिए वो लड़ती,
रानी का अलबेला ठाट।६९‌।

चंद्रावत ने आँख तरेरी,
रानी करती घोर विरोध।
जीत सभी पर उसने पायी,
राह हटा के सब अवरोध।७०।

संदेश सिखाए वो सबको
नारी मन मत देना घात।
नारी कोई कमजोर नहीं 
सिखलाती है सबको बात।७१‌।

घोड़े चढ़कर खड़ग चलाती,
रिपु दल आगे सीना तान।
वीर अहिल्या चंड़ी बनकर,
काट रही रिपुयों के कान।७२।

नारी होकर शासन करती,
देख गले चुभती थी फाँस।
कर-कर हारे जतन निराले,
वापस लेकर उखड़ी साँस।७३।


खूब भिड़ाई सबने तिकड़म,
सिंहासन पाने इंदौर।
हार मिली थी सबको जमके,
ऐसा था रानी का दौर।७४।

चाल चले वो ऐसी हरदम,
देती षड़यंत्रों को मात।
किस्मत ही उसको देती थी,
समय-समय पर पैनी घात।७५।

एक बहादुर योद्धा बन के,
पायी उसने हरदम जीत।
मार्ग दर्शन कर सेना का,
सच्चाई से रखती प्रीत।७६‌

गौरव गरिमा बढ़ती जाती,
करती ऐसे काम महान।
वीर मराठा शासक बनकर,
अपने खूब बढ़ाती मान।७७।

संतोष सदा मन में रखकर,
हर मुश्किल का ढूँढें तोड़।
हर पथ पर आगे बढ़ जाती,
कठिनाई को पीछे छोड़।७८।


इंदौर सदा संपन्न हुआ,
और बढ़ा था व्यापार।
व्यापारों को श्रेष्ठ बनाया,
बन कष्टों में हिस्सेदार।७९।

दिव्य अलौकिक प्रतिभा बनके,
अँधियारे को करती दूर।
शासन उसके फूल रही थीं,
जनजीवन खुशियाँ भरपूर।८०।

देवी तुल्य अहिल्या बाई,
सबके मन में करती वास।
दीन दुखी की चिंता करके,
पूरी करती मन की आस।८१।


प्रेम अटूट महारानी का,
बन जाते थे दुर्जन मीत।
ममता की मूरत रानी के,
गाते थे सब सुंदर गीत।८२।

चतुराई से निर्णय लेती,
जनमानस भरती उत्साह।
सबके जीवन खुशियाँ भरके,
दायित्व सदा कर निर्वाह।८३‌।

विधवाओं की पीर हरे फिर,
रखकर अपनी शीतल छाँव।
जीवन में बनके सहयोगी,
बंधन काटे उनके पाँव।८४।

गंगोदक सवैया

212 212 212 212, 212 212 212 212
शासिका रूप में ओढ़ ती दुख सभी,बाँटती थी सदा प्रेम के साज को।
द्वारका से गया लौट के नर्मदा,श्रेष्ठ देवालयों के करे काज को।
मालवा की बनी शासिका जान के,लूटने चोर आए कई राज को।
वीरता देख जाते सभी लौट के, दंड देती अनेको नशेबाज को

अनुशासन के पालन से फिर,
गुण गौरव फैला हर और।
सीधा सच्चा जीवन उनका,
शान प्रतिष्ठा थी सिरमौर।८५।


दीन अनाथों को दे आश्रय,
करती थी उनपर उपकार।
प्रेम सदा मुख छलके उनके,
दुखियों के दुख करती पार।८६‌।

घोर परीक्षा भगवन लेते,
देख हुई रानी गंभीर।
साहस का परिचय देकर फिर,
खोया न कभी अपना धीर।८७।

संबल देकर निर्बल को फिर,
सिखलाए थे अच्छे काज।
चोर डकैती करने वाले,
घबराकर फिर आए बाज।८८।

एक मराठा शासक बनकर,
श्रेष्ठ पढ़ाया उसने पाठ।
कुल मर्यादा मान बढ़ाती,
ऐसा था रानी का ठाठ।८९।

जो ठाना वो कर दिखलाया,
नाम अहिल्या होता सिद्ध।
अन्याय नहीं सहती जनहित,
होता उसका न्याय प्रसिद्ध‌।९०।


रोड़े पथ में डाल रहे थे,
शासन में रहते कुछ लोग।
छीन झपट कर लेना चाहें,
राज मराठा का सुख भोग।९१।

रानी पड़ती सब पर भारी,
देख उड़े उनके मुख रंग।
अद्भुत उनकी प्रतिभा से फिर,
रह जाते थे हरक्षण दंग।९२।

कानून कड़े करके करती,
आक्रांताओं का मुख बंद।
देखा उसका तेज सभी ने,
जल जाते थे रिपु दल चंद।९३।


शिव को वो आधार बनाके,
करती जनमानस का न्याय।
नारी को हर सुविधा देकर,
रोक रही थी हर अन्याय।९४।

वीर अहिल्या बाई का जब,
डंका बजता था हर ओर।
उसके आगे चाल न चलती,
छुपते डरके डाकू चोर।९५।

गंगोदक सवैया
राजसी वेश में सादगी ओढ़ती,लालसा भावना कामना छोड़ती।
दंभ तोड़े कई बार थी वो हठी,नाम शंभू महादेव का जोड़ती।
भूमिका शासिका की निभाती सदा,दीन नारी नहीं ये अहं तोड़ती।
बेड़ियाँ काटती वो बुरी रीत की, मालवा की हवा का रही मोड़ती।

माता श्री कहते सब उनको,
करते सच्चे मन से प्यार।
रानी की महिमा अति न्यारी,
सीने रखती भाव उदार।९५

आदर से सब देवी माने,
सेवा का रखते थे भाव।
रानी दुविधा दूर हटाती,
पार लगाती सबकी नाव।९६।

घोर परीक्षा भगवन लेते
हँसकर सह लेती चुपचाप।
सौंप दिया प्रभु चरणों में मन
जीवन ऐसा था निष्पाप।९७‌।

पीर सही जीवन में भारी,
फिर भी हरती सबकी पीर।
दोनों हाथों प्यार लुटाती,
संकट में रखती थी धीर।९८।

गाँव कभी छोटा सा लगता,
आज बना उन्नत इंदौर।
रंगत फिर नगरी में बदली,
रानी लाई ऐसा दौर।९९।

नारी को अधिकार दिए सब,
शोषण सारे करके बंद।
काले कानून सहे कब तक,
उसके भी है सपने चंद।१००।

संरचना विकसित नगरों की ,
सुविधा से रहती भरपूर।
जगह-जगह पीने का पानी,
दुख रहता था कोसों दूर।१०१

सुखमय हलधर का जीवन हो,
मन में रखती ऐसे भाव।(विचार)
सिंचाई सुविधा उत्तम हो,
श्रेष्ठ रहे फसलों का भाव।(दाम)१०२।

चाल पलट के अंग्रेजों की,
मुट्ठी में रखती थी जीत।
दीन-दुखी के हर संकट में,
बन जाती थी उनकी मीत।१०३।

ऐसी अद्भुत रानी जिसके,
जीवन में कष्टों का भार।
पल भर में वो काट गिराती ,
राह अड़े कंटीले तार।१०४।

हार नहीं रानी ने मानी ,
कष्टों का सिर बोझ अपार।
हर संकट में निर्भय होकर,
दूर हटाती सबका भार।१०५‌।

बस कालचक्र आगे उसका,
चल पाया कब कोई जोर।
घोर अँधेरा अंतस था पर,
पकड़े चलती आशा डोर।१०६।

जीवन के सूनेपन में बस,
केवल रहता प्रभु का ध्यान।
जीवन भर अपनाया सबको,
मान प्रजा अपनी संतान।१०७।

आक्रांताओं ने तोड़े थे,
मंदिर बनवाए वो खास‌।
तीर्थों पर बनवा के प्याऊ 
प्यासों को पूरी की आस।१०८।

भोर हजारों शिवलिंगों की,
पूजा करती थी हर रोज।
पूजा पाठ किए बिन रानी,
लेती न कभी पानी भोज।१०९।

रुढ़िवादी सोच हटाने की,
कोशिश करती थी पुरजोर।
पथ कंटक था फिर भी रानी,
लाना चाहे सुख की भोर।११०।

हाथ लिया जब शासन अपने,
नाम लिखी थी पहली जीत।
जनसाधारण देख रहा था,
रानी की यह अनुपम रीत।१११।


गंगा जल सम निर्मल जीवन,
मुख में रहता था शिवनाम।
तीरथ सुविधा श्रेष्ठ बनाई,
बनवाए थे शुभ शिवधाम।११२।

विश्वासी जब बनकर घाती,
राघोबा के मिलता साथ।
सेना ले क्षिप्रा तट आया,
लौटा उल्टे खाली हाथ।११३।

बोझ करों का कम वो करती,
सुविधाएं देती भरपूर।
रोज सभी के दुखड़े सुनती,
जनता का दुख करती दूर।११४।

गौरव गाथा गूँजी जग में,
रानी के विरले थे काम।
आज सभी आदर से लेते,
मात अहिल्या का फिर नाम।११५।

शासन भार बड़ी निष्ठा से,
संभाला था पूरे काल।
अंतस फैली करुणा रूपी,
आभा से चमका था भाल।११६।

अनुपम साहस की प्रतिमूर्ति,
घोर विरोधी थी पाखंड।
धर्म सदा ही ऊँचा माना,
दुष्टों को देती थी दंड।११७।


सुंदर बाग किले बनवाए,
देती सबको भर-भर दान।
मंदिर घंटे गूँज रहे थे,
जैसे खुश होते भगवान।११८।

अंग्रेजों से रखती दूरी,
सबकी करती वो परवाह।
शांति भरा शासन उनका,
सुख से सब करती निर्वाह।११९।

खुशियाँ चारों ओर खिली थी,
तीन दशक के शासन काल।
कोप विधाता का सहकर भी
तेज बड़ा था उनके भाल।१२०।


जीवन के अंतिम पथ आकर,
सारे भारत में विख्यात।
मान मिला सम्मान मिला पर,
विधना देती गहरे घात।१२१।

सन सत्रह सौ पंचानवे,उनका अंतिम साल था।
राज तुकोजी को सौंप के,मुकुट सजाया भाल था।
जीवन भर खुशियाँ बाँट के,त्यागे अपने प्राण थे।
रोते थे नर-नारी सभी,उनका प्रेम प्रमाण थे।

©® अनुराधा चौहान'सुधी'✍️

चित्र गूगल से साभार