अंक लपेटे बहता पानी
भिगा रहा धरती आंचल
प्रीत मेघ की बरस रही है
अँधियारे का रच काजल।
नृत्य दिखाती चपला गरजे
चाँद देख यह छुप जाए।
बूँदो की थिरकन टपरे पर
ठुमरी सा गीत सुनाए।
और नदी इठलाती चल दी
कर आलिंगन सागर जल।
अंक लपेटे...
निर्झर छाती चौड़ी करके
गान सुनाते मनभावन।
पत्थर की मुस्कान खिली फिर
पुष्प महकते निर्जन वन।
मेघ दिवाकर का रथ रोके
लिए खड़ा किरणों का हल।
अंक लपेटे...
सौरभ लेकर झूम रही है
सोई थी जो पुरवाई।
साँसों का कंपन अब जागा
मन पे छाई तरुणाई।
वसुधा अब शृंगार सजा के
भूली बंजर था जो कल।
अंक लपेटे...
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार
बहुत सुंदर चित्रण । झरना ,बादल सभी समा गए ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (10-8-21) को "बूँदों की थिरकन"(चर्चा अंक- 4152) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
हार्दिक आभार सखी
Deleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteगुरुदेव टैगोर का गीत - 'वृष्टि करे टापुर-टापुर'
याद आ गया !
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteवाह! बहुत खूब।
ReplyDeleteनृत्य दिखाती चपला गरजे
ReplyDeleteचाँद देख यह छुप जाए।
बूँदो की थिरकन टपरे पर
ठुमरी सा गीत सुनाए।
बहुत सुन्दर और मनमोहक नवगीत अनुराधा जी ।
झरनों और बूंदों के प्रवाह को बाखूबी लिखा है ...
ReplyDeleteकेनवस की तरह उतारे हैं शब्द ...