मौन ढूँढे नव दुशाला
व्यंजना के फिर जड़ाऊ।
यत्न करके हारता मन
वर्ण खोए सब लुभाऊ।
खो गई जाने कहाँ पर
रस भरी अनमोल बूटी
चित्त में नोना लगा जब
भाव की हर भीत टूटी
नींव फिर से बाँधने मन
कल्पना ढूँढे टिकाऊ।
मौन ढूँढे नव........
भाव का पतझड़ लगा जब
मौन सावन भूलता है।
कागज़ों की नाव लेकर
निर्झरों को ढूँढता हैं।
रूठकर मधुमास कहता
बह रही पुरवा उबाऊ।
मौन ढूँढे नव........
वर्ण मिहिका बन चमकते
और पल में लोप होते।
साँझ ठिठके देहरी पर
देख तम को बैठ सोते।
लेखनी भी ऊंघती सी
मौन की यात्रा थकाऊ।।
मौन ढूँढे नव........
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*