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Tuesday, April 30, 2019

ख्व़ाहिशों के झरोखों से

ख्व़ाहिशों के झरोखों से
झाँकती उम्मीद भरी आँखें
वक़्त की धूप में मुरझाया चेहरा
फ़िर भी होंठों पर मुस्कान लिए

कर्मशील व्यक्तित्व के साथ
सबकी खुशियों में अपने सपने ख़ोजती
सहनशीलता की बनकर मूरत 
ख़ुद की पहचान को भूलती जाती

रिश्तों की बनकर जन्मदात्री
उपेक्षा के अँधेरों को झेलती
प्रताड़ना सहती फ़िर भी हँसती 
अपने वजूद को कायम रखती

जानती है खूब नहीं निर्भर किसी पर
अगर वो जिद्द अपनी ठान ले
हौसले की उडान भरकर
ख्वाहिशों को हाथों से थाम ले 

फ़िर भी झुक जाती हमेशा वो
अपनों की खुशियों के बोझ तले
रो लेती मन ही मन होंठों पर मुस्कान लिए
रख देती ख्व़ाबों को कर्त्तव्य के बोझ तले
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, April 28, 2019

निष्ठा और समर्पण

निष्ठा और समर्पण 
प्रेम और विश्वास
रिश्तों को रखें बाँध कर
तब बनता है परिवार
स्त्री पुरुष के त्याग से
पुरुष की निष्ठा
परिवार का विकास
धूप हो या बरसात
सिरदर्द हो या बुखार
बस एक ही चाह है
कमी न खले किसी को
किसी भी अभाव की
लगा रहता पूरी निष्ठा से
आज्ञाकारी पुत्र बन 
माँ-बाप की सेवा
कठोर पिता की 
भूमिका बच्चों का हित
धेर्यवान पति बन 
पत्नी की आशाएं पूरी करता
पता है उसको 
फ़िर भी कमी लगती है
सबको उसके समर्पण में
पर वो पुरुष है ग़म दिखाता कम
पर लगा रहता कर्त्तव्य पथ पर
पूरी निष्ठा ईमानदारी से
स्त्री बाँध कर रख देती
ख्वाहिशों को अपनी
भूल जाती सपने सारे
कर्त्तव्यों का पालन करने में
निष्ठा से निभाती रिश्ते
बड़ों का सम्मान
पति के लिए समर्पित
ममतामई माँ का रूप
हर रूप को खुश होकर जीती
यही निष्ठा नारी की
उसको सबसे ऊपर रखती
***अनुराधा चौहान***

Thursday, April 25, 2019

तू अगर इजाज़त दे

तू अगर इजाज़त दे तो...
बीती यादों की गठरी खोल
चुन-चुनकर हसीं लम्हे उठा लूँ
कुछ को दिल से लगाकर
कुछ को आँखों में सजा लूँ
 तू अगर इजाज़त दे तो...
बीती यादों की गठरी खोल
कभी गाए थे हमने गीत
उन गीतों से सरगम चुराकर
उनमें प्रीत के अहसास भरकर
प्यार का एक नया गीत बना लूँ
तू अगर इजाज़त दे तो...
बीती यादों की गठरी खोल
कुछ अधूरे पड़े ख्व़ाब
कुछ दबी हुई ख्वाहिशें
चलो आज कुछ ख्व़ाहिशें पूरी कर
तेरा दामन को खुशियों से भर दूँ
तू अगर इजाज़त दे तो...
बीती यादों की गठरी खोल
सारे गिले-शिकवे निकालकर
फेंक देते हैं कहीं दूर बहुत दूर
सृजन करते हैं एक नए प्रेम का
जिससे दुःख रहे हमेशा दूर
तू अगर इजाज़त दे तो...
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

अकेलेपन की वेदना

सूखी टहनियों को लिए खड़ा
कड़ी धूप में तन्हा पेड़
अकेलेपन की वेदना सहता
ना राही ना पंछी बस राह है देखता
यादों में खोया सोचता यही है
कोई बैठे पास तो 
मैं छाँव भी न दे सकूँ 
पतझड़ के मौसम में 
किसी काम का नहीं हूँ
राह देखता हूँ यह बहार 
कब लौटकर आएगी
पंछियों के शोर से मुझे गुदगुदाएगी
हरी-भरी डालियों के पंखे झुलाएगी
बैठेंगे मेरी छाँव में दीवाने प्यार के
तन्हाईयाँ दूर हों आए दिन बहार के
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार
  

Wednesday, April 24, 2019

धूप-छांव ज़िंदगी की

बड़ी विकट है धूप-छांव ज़िंदगी की
अज़ब यह ज़िंदगी गज़ब है तमाशा

वक़्त के साथ-साथ हर इंसान बदलता
कोई झूठ से तो कोई धोखे से मरता

चाहतें हैं बड़ी-बड़ी ज़िंदगी है छोटी
सूरतें हैं भोली पर नीयत हैं खोटी

हरपल बदलते यहाँ इंसान के चेहरे
हर चेहरे के पीछे छुपे राज बड़े गहरे

सच्चाई की है यहाँ उमर बड़ी छोटी
झूठ के हाथों से वह बेमौत मरती

चॉकलेट से सस्ती है बेटियों की कीमत
दिखती नहीं है उनकी मासूम-सी सूरत

वासना में अँधे यह शैतानी चेहरे
मासूम चीखों पर लगते हैं ठहाके

टूटती हैं कलियाँ बिखरते हैं सपने
कुछ दूसरे हैं तो कुछ होते हैं अपने

यह शैतानी घाव ज़िंदगी कब-तक सहेगी
चीखों से इनकी इंसानियत कब-तक मरेगी

ज़िंदगी पर लग रहे दाग़ बड़े गहरे
मौत से भी बदतर हालत अब ठहरे

कब तक कलम यह दर्द लिखती रहेगी
इंसानियत बार-बार शर्मिंदगी सहेगी

संभाल लो अपने संस्कारों की पूँजी
तभी यह ज़िंदगी ज़िंदगी बन खिलेगी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Tuesday, April 23, 2019

मेरी वेदना


तेरी यादों की हवा मुझे छूकर गुजरती है
मेरे जख्मों को कुरेद आँखें नम कर देती है
डूबती हूँ मैं अपने अतीत की गहराई में 
तुझसे मिलने की चाहत बेचैन करती है

मेरे दर्द की इंतहा उफ़ ये तेरा इंतज़ार
बेकरार कर देती है आहट हर प्रहर
हवाओं के झोंके यादों को झिंझोड़ते
आँखों में उतरने लगती दर्द की लहर

यह सर्दियों की धूप भी मन को खलती
मौसम का आना यादों से आँख-मिचोली
उम्र की दहलीज से पल-पल उतरती
वेदना में भींगा हुआ कोई गीत गुनती

सुन कोयल की बोली अमराई रोई
कहीं टूटा तारा कहीं सिसका कोई
हवाओं संग आ गिरी यादों की गठरी
मेरी वेदना के दर्द से वो मुरझा कर रोई

खिले धूप जीवन में वज़ह नहीं मिलती 
सांँसों की सरगम में ना कोई धुन बजती
काश खुशी के कोई गीत गुनगुनाऊँ
ऐसी मुझको कोई वज़ह ना मिलती

वेदना में अकसर आँखें जब भीगती 
दर्द दिल का देख दामिनी भी तड़कती
तुझसे मिलने की चाह है अभी जी रही हूँ
असर बेरुखी का सह विरहन तड़पती।
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, April 21, 2019

जीवन के रंगमंच पर

जीवन के रंगमंच पर
देखे हैं अजब तमाशे
पैसे वाले नींद को तरसे
गरीब लेते हैं खर्राटें
जेब भरी है दौलत से
सुकून चेहरे से गायब है
जीवन के इस मंच का
यह कैसा अजीब नायक है
थाली में भोजन हैं छप्पन
किसी में नमक कम है 
तो कहीं कम लगे मक्खन
संतुष्ट नहीं यह किसी बात से
जलते एक-दूजे के आराम से
ग़रीब को देख घिनियाते 
जोकर-सा उनको नचाते
ग़रीब पर जब अत्याचार करते
फ़ख्र बड़ा इस बात पर करते
बनाकर उनको यह कठपुतली
इंसानियत की हदें पार करते
बलवान बड़े यह नायक
इंसानियत को करते घायल 
यह रंगमंच बड़ा पेचीदा है
मरता वही जो सीधा है
सदियों से यह रीत चली आई
निर्बल पर हावी यह दुनिया सारी
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Friday, April 19, 2019

यह कैसा इश्क

यह कैसा इश्क है 
आसमां का ज़मीं से
लगता है दूर कहीं 
मिलता है ज़मीं से
मगर यह सच नहीं है 
यह है सिर्फ फ़साना
चाह के भी गा न पाएं 
यह प्यार का तराना
जब गुजरता है इश्क 
इनका दर्द की इंतहा से
आँसुओं की बारिश
तब ज़मीं को भिगोती
बस यही है मिलन 
धरती का अंबर से
अंबर के आंँसुओ को 
तन पर सजाकर
पहनकर प्यार की 
यह धानी चूनरिया
शरमाकर अंबर की
बन जाती दुल्हनिया 
    ***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार 

Thursday, April 18, 2019

ज़िंदगी के पन्ने

आ बैठती हूँ झील के किनारे
चेहरे पर मुस्कान लेकर
रोज टूटती बिखरती हूँ
बीते लम्हों की याद लेकर
जाने किस स्याही से लिखे हैं
मेरी किस्मत के पन्ने
खुशियां आती हैं लौट जाती हैं
मेरी जीवन की दहलीज से
ग़म नहीं है तू नहीं पास
यह तो किस्मत है मेरी
जब भी कुछ अच्छा लिखती हूँ
जिंदगी के पन्नों पर
किस्मत की स्याही अकसर
पन्नों पर बिखर जाती है
फिर से बदरंग ज़िंदगी लिए
मैं खुद को वही पाती हूँ
खुद के हालात को सोचकर
अब रोती नहीं मुस्कुराती हूँ
कितना भी दौड़ लूँ ज़िंदगी में
लौटकर खुद को वही पाती हूँ
यह खाली पन्ने किस्मत के
कब खुशी के गीत लिखेंगे
कब खुशियों के कमल
मन की झील में खिलेंगे
तेरे वादों को याद लेकर अकसर
आ बैठती हूँ झील के किनारे 
इंतज़ार है कि तू आए लौटकर
दिन कट रहे इसी आस के सहारे
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, April 16, 2019

दिन बचपन के

हल्ला गुल्ला शोर मचेगा
अब तो सारी दोपहर मचेगा
मोज मस्ती के दिन हैं आए
स्कूल सारे बंद हैं भाई
कापी किताब से पीछा छूटा
मस्ती से अब जुड़ गया नाता 
अब न धूप सताए ना ही अंधेरा
गलियों में हम बच्चों का डेरा
न कोई रोके न कोई टोके
झूमें हम सब मस्ती में होके
अब गोरा हो या काला लल्ला
गलियों में अब मचेगा हल्ला
दिन बचपन के यह बड़े सुहाने
गुजर गए तो फिर नहीं आते
हँसी ठिठोली नाचे गाएं
मासूम लम्हे यह मन को लुभाए
सच्चा मन सच्चा बचपन
न कोई झगड़ा न कोई ग़म
लम्हे ज़िंदगी के सभी हैं अच्छे
बीते दिन जो बचपन के थे सच्चे
छुट्टियों की धूम से खिल उठे मन
बच्चों के सबसे प्रिय हैं यह पल
धूल से सने गंदे बदन
नाचे बेफिक्री से मचाएं हुड़दंग
नहीं चाहिए कोई कीमती खिलौने
खुशियों को हमारी कोई न छीने
आम के पेड़ों पर चढ़कर
ऊधम मचाएंगे हम सारे
छोटी-छोटी अमिया को तोड़कर
खाएंगे लेकर चटकारे
जिएं जी भर कर दिन छुट्टी के
खेले दिनभर धूल-मिट्टी में
***अनुराधा चौहान***

Saturday, April 13, 2019

रात की चौखट पर

रात की चौखट पर
ठिठक कर रुक जाते हैं
मेरी किस्मत के उजाले
दुःख की रात ढलती नहीं
सुख का सूरज आता नहीं
यह कैसी परीक्षा ज़िंदगी की
जब भी उजाले की ओर
बढ़ने लगते हैं मेरे कदम
कहीं से तेरी यादों का झोंका
आकर मुझसे लिपट जाता
बीत जाती है हर रात
तेरी यादों की चारपाई पर
मेरा वक़्त रुका वहीं
अभी भी तेरे इंतज़ार में
रात की चौखट पर
अंधेरे की काली चादर ओढ़
मैं दर्द की लहरों संग मचलता
आँसुओं के समंदर में डूबता
तुम्हें तलाशती आँखें हरपल
मुझे भरोसा आज़ भी है
तू आएगी एक दिन लौटकर
रात की चौखट पर
आज भी बैठकर करता हूँ
मैं तेरा इंतज़ार अक्सर
काश मेरा चाँद आए
चाँदनी के उजाले साथ लेकर
रात की चौखट पर आकर
तारे आस के टिमटिमा दे
भरोसा है मुझे भरोसे पर
मेरी ज़िंदगी में तेरा प्यार
रात की चौखट पार कर
ले जाएगा उजालों की ओर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, April 10, 2019

एक बेचारा

एक गरीब बेचारा
घर सेे निकला था
रोजी-रोटी तलाशने
जेब में संभाल कर रखे थे
माँ के आँसू,
पिता का आशीष
पत्नी के अरमान
बच्चों की ख्वाहिशें
लिए चंद रुपए
खाई दरबदर की ठोकरें
सच्चाई की दौलत जेब में लिए
मेहनत कर पैसे कमाए
हर काम के लिए
करता औरों की जेब गरम
गरीब के पैसे ख़ाकर
भ्रष्टाचारियों को न आए शरम
सच्चाई हारने लगी
झूठ पांव पसारने लगा
गांव से आया सच्चा इंसान
धीरे-धीरे भ्रष्टाचारी बनने लगा
दोष उसका नहीं 
दोष रसूखदारों का है
पैसे वालों को सारी सुविधाएं
गरीब की कौन सुनता है
धूप में बदन जलाकर
मेहनत कर पसीना बहाते
फिर भी जरुरत पूरी न हो पाए
ना ही बच्चों को पढ़ा पाते
तंगहाली में कब फट जाती जेब
गिरकर मिट्टी के मिल जाते
पत्नी के अरमान
बच्चों की ख्वाहिशें
माँ के आँसू, पिता का आशीर्वाद
करने सबकी जरुरतें पूरी
करने लगा सबकी जी हुजूरी
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, April 9, 2019

मैं धर्म हूँ

मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
ज़ख्मी होकर आज पड़ा
अपनों के बीच अपने लिए 
लड़ रहा ज़िंदा रहने के लिए
भूल गए इंसानियत का धर्म
बने आज एक दूसरे के दुश्मन
हाँ मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
ना कोई माना ना कोई मानेगा
एकता थी वजूद मेरा 
बटा हुआ हूँ आज टुकड़ों में
जातियों के नाम पर
नफ़रत के पैग़ाम पर
अंतिम साँंस गिन रहा
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
मानता है जो मुझे
संवारता जो मुझे
प्रेम बांटता फिरे
उपेक्षित वो इस जहाँ में
अभिशप्त हो जी रहा 
मैं स्वयं के हाल पर
मानव की मानसिकता पर
द्रवित हो उठा आज
अश्रू बहाकर देखता
धरा से मिटते खुद को आज
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
***अनुराधा चौहान***

Monday, April 8, 2019

पूनम का चाँद

पूनम का चाँद जब भी आता
दिल के ज़ख़्मों को कुरेद जाता
तुझसे जुदा होकर भी
ज़िंदा हूँ यह दर्द पीकर भी

बहुत हसीन थे वो लम्हे 
झील का किनारे गुलमोहर के तले
चाँदनी रात में चाँद को देखते
जगमगाते तारे अम्बर पे सजे

चाँदनी रात की हसीं मुलाकात में
  गीत प्रेम के तुम गुनगुनाते थे
आज भी उस गीत को याद कर
आँखों में नमी आ जाती है

तुम संग जो ख्व़ाब बुने थे मैंने
 बिखर गए वो रेत के जैसे
 ज़िंदगी दिल तोड़कर निकल गई
समझ न पाए ज़िंदगी की पहेली

आज भी सब कुछ वही है
बदल गए तुम न जाने कैसे 
तेरी बेरुखी से उजड़ा गुलमोहर
गुमसुम-सा तबसे खिला भी नहीं


ख्व़ाब जरुर टूटे पर आस बाकी है
मिलने की आस लिए बैठा हूँ
साथ बिताए लम्हों को भूलूँ मैं कैसे
इस याद के सहारे जिंदा हूँ

चाँद की कला-सा प्यार परवान चढ़ा
चाँद की तरह ही अंधेरे में खो गया
ग़म नहीं मुझे जो यह दिल टूटा
गम है बस तेरा साथ छूटा

याद तो तुम्हें भी आती होगी
यह जुदाई तुझको भी तड़पाती होगी
पूनम का चाँद जब तुम देखते होगे
कहीं न कहीं तुझे मुझे याद करते होगे
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Sunday, April 7, 2019

वजह थी तेरी बेरुखी

तन्हा तन्हा -सी है अब
यह ज़िंदगी तुम बिन
कुछ यादें कुछ बातें
कुछ लम्हे तेरे वादे
कैसे भूल जाऊं ज़िंदगी
जो ज़ख्म तूने दिए थे
यह दर्द और बेकरारी
छाई जीवन में उदासी
है दामिनी तड़कती
घटाएं शोर करती
हवाओं ने रुख़ है बदला
आई यह रात काली
जो फासले हमारे दरमियान
वजह थी तेरी बेरुखी
मन में मेरे हरपल
यादें तेरी है बसी हुई
मैंने हर अपमान सहा
हर रिश्ते का मान रखा
जब चोट लगी दिल को
बिखर गए सपने सभी
बह गए इन आँसुओं में
इस दिल के सारे भरम
गलतियां तुम्हारी नहीं
विचार हमारे मिले नहीं 
चाह थी सात जन्मों की
संग जीने-मरने की
पर कुछ कदम भी हम
एक-दूजे के साथ न चल सके
  ***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Saturday, April 6, 2019

बिगुल बज उठा

लो फिर बिगुल बज उठा
तारीफों का शोर मचा
अपने मुंह सब मियां मिट्ठू
नचाते सब हथेली पर लट्टू

आजकल हो रहे बड़े मेहरबान
मत से मतलब मतदान हैं पास
वोटों की खातिर हैं अभी लगाव
पास में आ गए हैं अब चुनाव

मत दो या मत दो
पर कर्तव्य का पालन करो
मत मतदाता का अधिकार है
हो सके तो मत का दान करो

देखो,सोचो और समझो
वोट देने का हक न छोड़ो
सही समझो और सही चुनो
मतदान करो हाँ जरूर करो

बड़े बड़े वादे बड़े बड़े नाम
कैसे भी सभी को जीतना है चुनाव
वोटों की राजनीति में लगे सब
बातें हैं बड़ी-बड़ी काम हैं कम
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

Thursday, April 4, 2019

यह आँखें

कुछ कहती हैं यह आँखें
भेद खोलती हैं यह आँखें
कभी हँसती कभी रोती
मन की बात बताती आँखें

आँखों आँखों में ही कितने
प्रीत के गीत सुनाती आँखें
कभी हँसती और मुस्काती
दिल का हाल बताती आँखें

मन का दर्पण बनती आँखें
चंचल-सी यह सुंदर आँखें
काजल-सी काली कजरारी
मन को बड़ा लुभाती आँखें

विरहा का दर्द छलकाती
दिल के घाव छुपाती आँखें
प्रिय से कर दिल की बातें
सजनी की शरमाती आँखें

ममता के रस में डूबी
आशीष का रस बरसाती
कभी पैनी नजर बनकर
दिल में गहरे उतर जाती आँँखें
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार

अधूरे ख्वाब

 यह अधूरे ख्व़ाब‌ मेरे
तेरी यादों में दिन-रात भींगे
तुझको इतनी फुरसत न थी
जो कभी मुड़कर भी देखे
गलतफहमियाँ थी यह मेरी 
जिन्हें मैं पाल बैठी थी
जो ख्व़ाब सजाए थे आँखो में
उन्हे सच मान बैठी थी
बैरन निंदिया आँखो से ओझल
मैं तन्हाई से बातें करती थी
पल-पल बिखरते ख्व़ाबो के
टुकड़ों को समेटा करती थी
चाँदनी रातों में झांँकती झरोखे से
जाने कितनी रातें निकलीं
आँखो ही आँखो में
टूटते तारे सी आज मेरी ज़िंदगी
कब टूट कर बिखर जाऊँ
मुझको ही खबर नहीं
जी रहीं हूँ तुझ बिन यह कैसी ज़िंदगी
ज़िंदा होकर भी आज मैं ज़िंदा नहीं
जाने कितनी बार गुजरी मैं तेरी गलियों से
पूछती थी पता फूलों और कलियों से
फुरसत मिले कभी आकर तू देख जरा
आज भी करती वहीं इंतजार मैं तेरा
***अनुराधा चौहान***

Tuesday, April 2, 2019

वक़्त के घाव


वक़्त की बेहरमी ने
तोड़े मन के सारे भरम
कभी दिल टूटकर बिखरा
यह वक़्त यूँ बदला
चल दिए छोड़कर अपने
जिगर पर मार के खंजर
वक़्त की यह कैसी मनमानी
मरता दिखे आँखों का पानी
बुद्धि विवेक सब भूल बैठे
वक़्त के चुभे शूल ऐसे
अपनापन पहचान खो रहा
अपना ही अब घाव दे रहा
मति के मारे इंसान सारे
आपस में ही लड़ते रहते
आपसी प्रेम की भूले भाषा
वक़्त के साथ बढ़ती अभिलाषा
इंसानियत पर हावी हो रहा
वक़्त अपने रूप बदलकर
अच्छा हो या बुरा ही सही
वक़्त न रुकता किसी के लिए भी
दिल दिमाग दोनों खुले रखकर
चलो वक़्त से कदम मिलाकर
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार