चला रहा सदियों से आरी
आशाओं के बाग खड़ा।
माँग बढ़ाता नित ही दायज़
अपनी हठ को लिए अड़ा।
गठबंधन लाखों में उलझा
हर फेरे पर माँग बढ़े।
फूट-फूट मंडप में रोए
स्वप्न कभी जो हाथ गढ़े।
दंभ भरी लालच की वाणी
लगे कुठारी पीठ जड़ा।
चला रहा....
लोभ लगाए पावन फेरे
लेकर मँहगे स्वप्न बड़े।
एक हाथ में स्वर्ण पोटली
दायज रूपी रत्न जड़े।
फिर भी अपने हाथ पसारे
हर मंडप के बीच लड़ा।
चला रहा....
बोझ बढ़ा पगड़ी पर भारी
मान बिलखता पग नीचे।
कोमल आशा अश्रु बहाती
बैठी अँखियों को मीचे।
मान झुके माँगों के आगे
करके अपना हृदय कड़ा।
चला रहा....
प्रीत बिलखकर पीछे छूटी
विदा हुई कटुता सारी।
कड़वाहट की पेटी लेकर
डोली बैठी वधु प्यारी।
मात पिता की देख विवशता
हृदय निकलकर वहीं पड़ा।
चला रहा....
*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार
बोझ बढ़ा पगड़ी पर भारी
ReplyDeleteमान बिलखता पग नीचे।
कोमल आशा अश्रु बहाती
बैठी अँखियों को मीचे।
मान झुके माँगों के आगे
करके अपना हृदय कड़ा।
चला रहा....
हकीकत को बयां करती हुई बहुत ही मार्मिक व हृदय स्पर्शी रचना!कानूनी तौर पर तो दहेज लेना गुनाह है पर हकीकत कुछ और ही बयां कर रही है ! मैंने ऐसे बहुत से कानून के रक्षकों को देखा है जो दहेज लेने और देने से जरा भी नहीं हिचकीचाते! बहुत से ऐसे लोगों को भी देखा जो दहेज लेना अपनी शान समझते हैं! उन्हें लगता है दहेज ना लेंगे तो यह हमारी शान के खिलाफ होगा! मैंने आज तक अपनी पहचान एक भी ऐसा व्यक्ति(पुरुष समाज में) नहीं देखा जो दहेज लेने खिलाफ हो.. .! मन विचलित हो जाता है यह सब देखकर पर कुछ कर नहीं पाते! सिवाय अपने गुस्से और दर्द को शब्दों के जरिए बयां करने के!
आपने बिलकुल सही कहा मनीषा जी।आपका हार्दिक आभार।
Deleteहकीकत बयान करती बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteहार्दिक आभार ज्योति जी।
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना शुक्रवार २४ दिसंबर २०२१ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हार्दिक आभार श्वेता जी।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार(२४-१२ -२०२१) को
'अहंकार की हार'(चर्चा अंक -४२८८) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार सखी।
Deleteबोझ बढ़ा पगड़ी पर भारी
ReplyDeleteमान बिलखता पग नीचे।
कोमल आशा अश्रु बहाती
बैठी अँखियों को मीचे।
मान झुके माँगों के आगे
करके अपना हृदय कड़ा।
चला रहा....बहुत बहुत सुंदर सृजन।
सादर
हार्दिक आभार सखी।
Deleteबहुत सुंदर सराहनीय सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार जिज्ञासा जी।
Deleteबहुत सार्थक सृजन अनुराधा जी | समाज की कुरीतियों से उबरने में शिक्षा के बावजूद बहुत देर हो रही |
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी।
Deleteदहेज़ लेना और देना दोनों ही अपराध होते हुए भी खूब फल फूल रहे हैं । सार्थक सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteसत्य के करीब रचना ... लाजवाब ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteहार्दिक आभार भारती जी।
ReplyDeleteइस कुरीति के कारण न जाने कितनी कलियों को झुलसना पड़ा है, समाज की यथार्थ तस्वीर दिखाती प्रभावशाली रचना
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया।
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