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Sunday, September 23, 2018

परदेशी

कब आओगे परदेशी
तुम फिर मेरे गांव में
कब तुमसे फिर मिलना होगा
ठंडी पीपल की छांव में

करती हूं मैं तेरा इंतजार
फिरूं बाबरी गलियों में
शायद तुम फिर दिख जाओ
कहीं गांव की गलियों में

हरे-भरे यह खेत खलिहान
सब उजड़े उजड़े दिखते हैं
यादों से कैसे धीर धरूं
नैनों से नीर बरसते हैं

आ जाओ अब तुम बिन
सब ठहरा ठहरा लगता है
चेहरे पर मुस्कान नहीं
उदासी का पहरा रहता है

कब आओगे परदेशी
तुम फिर से इन गलियों में
अब की में भी साथ चलूंगी
संग तेरे तेरी दुनिया में

***अनुराधा चौहान***

24 comments:

  1. वाह बहुत सुन्दर विरह रचना!!
    बाट जोहती रहती हूं
    दिन रैन सांझ सवेरे में
    चांद भी फीका लगता है
    साया रात के घेरे में।
    कब आवोगे परदेशी ।

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    1. बहुत बहुत आभार कुसुम जी बेहद खूबसूरत पंक्तियां आपकी

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 25 सितम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. आपका बहुत बहुत आभार यशोदा जी

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  3. बहुत ही सुन्दर रचना 🙏

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  4. वाहः बहुत खूबसूरत

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  5. बहुत ही सुन्दर रचना 👌

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  6. लम्बे इनज़ार का भाव दिखाई देता है इस रचना में.

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  7. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति, अनुराधा दी।

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  8. बहुत सुंदर सृजन अनुराधा जी ।

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  9. लाजवाब सुंदर अभिव्यक्ति....

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  10. कब फिर तुमसे मिलना होगा
    ठंडी पीपल छाँव में....
    वाह!!!
    बहुत सुन्दर...

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    1. आपका बहुत बहुत आभार सुधा जी

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  11. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद नीतू जी

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  12. आ जाओ अब तुम बिन
    सब ठहरा ठहरा लगता है
    चेहरे पर मुस्कान नहीं
    उदासी का पहरा रहता है....

    बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति

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    1. धन्यवाद आदरणीय राजीव जी

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