भोर को रूठा हुआ-सा
देख सूरज ढल गया।
मौन चंदा बादलों में
क्षीण होकर छुप गया।
याद की गठरी गिरी फिर
स्वप्न सिसके सब निकल।
मिट गया शृंगार जब
रोई दुल्हनिया विकल।
अर्थी उठी जब आस की
अंतर्मन पिघल गया।
मौन चंदा..
लौ मचलती दीप की फिर
पूछती है कहानी।
पीर कैसी मन बसी है
बह रहा नयन पानी।
छीनकर क्यों आज खुशियाँ
मीत मन का खो गया।
मौन चंदा..
वेदना फिर शोर करती
बुझ गया मन का दीप ।
अंतस उमड़ती लहर में
तट लगी यादें सीप
हाथ मेहंदी रो रही
वो चिता में जल गया।
मौन चंदा..
©® अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार