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Wednesday, October 28, 2020

मानव ही दानव


 पाप बढ़ा धरती पे भारी
कलयुग पाँव पसारे।
नारी तन की करे प्रदर्शनी
बेटा बाप को मारे।

सच्चाई पड़ती महँगी
झूठ बढ़ाता शान।
इंसानियत सिसकती कोने
हँसते जग बेईमान।

धर्म कराहे लंगड़ा होकर
अधर्म सिंहासन बैठा।
द्वेष भावना मन में पाले
अपनों से रहता ऐंठा।

एक द्वेष की फिर चिंगारी
रिश्ते पल में सुलगते।
नारी के आँचल में पलकर
नारी तन ही कुचलते।

प्रीत दिखावे में लिपटी
जिव्हा भी मिसरी बोले।
पीछे पीठ पर घात करें
और जहर ज़िंदगी घोले।

मानव की कैसी ये लीला
विनाश पथ ही चलता।
जीवन संसाधन को मिटाने 
मानव में दानव पलता।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

Wednesday, October 21, 2020

नागफनी


 सूने आँगन में
पनपी नागफनी।
जीवन की राहें
बिखरी आस कनी।

उड़ती है अम्बर
धुआँ द्वेष रेखा।
पल भर में बदला
काल रचा लेखा।
प्रीत पुरानी सब
भूले आज मनी।

पलटी किस्मत जब
स्वप्न राख ढेरी।
चुभते कंटक से
राह खड़े बैरी।
आज तोड़ते सब
चुभती जो टहनी।

चलो बदल डाले
जगती की रचना।
सुंदर सृजन की
फिर हो संरचना
हर्षित होगा मन
महकेगी अवनी।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Sunday, October 11, 2020

दूरियाँ


दूरियाँ दिल में बढ़ी है
रोज बढ़ते फासलों से।
बेवजह लिपटे रहे हम
झूठ के ही आँचलों से।

द्वेष का उठता धुआँ तब
रक्त बहता नीर बन के।
आँख से मरती शरम भी
खींच उठते चीर तन के।
पीर बरसे नीर बन फिर
 व्यर्थ बढ़ते चोंचलों से।‌
दूरियाँ दिल...

सो रहे सब नींद कैसी
काल आकर के खड़ा है।
रोज होते देख झगड़े
जान के पीछे पड़ा है।
थरथराती है धरा भी
रोज आते जलजलों से।
दूरियाँ दिल...

भावनाएं रोज मरती
शब्द चुभते तीर जैसे।
जेब अपनी भर रहे हैं
छोड़ बैठे प्रीत कैसे।
व्यर्थ की बातें निकलती
बेवजह की अटकलों से।
दूरियाँ दिल...
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

Friday, October 2, 2020

पदचिह्न

पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
भीषण काल करे अट्टहास 
डर से काँपे सब जनता।

दरवाजे पर कुंडी लटकी
लगे दुकानों पर ताले।
काम छिना लाचार हुए सब
चले लिए पग में छाले।
मरें भूख से जीव तड़पते
एक शाप है निर्धनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।

माँ के आँचल में शिशु लिपटा
दूध पान मनुहार करे।
मृतक देह से सिसके लिपटा
मृत माँ कैसे पेट भरे।
भूख छीनती साँसे पल पल
प्रभु कैसा कोप उफनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।

कोमल नन्हे बाल सलोने
घनी धूप तपती काया।
चले राह में भूख सताती
कैसी प्रभु रच दी माया।
निर्बल नयन नीर की धारा
मन दुविधा रोज पहनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
©®अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार