पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
भीषण काल करे अट्टहास
डर से काँपे सब जनता।
दरवाजे पर कुंडी लटकी
लगे दुकानों पर ताले।
काम छिना लाचार हुए सब
चले लिए पग में छाले।
मरें भूख से जीव तड़पते
एक शाप है निर्धनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
माँ के आँचल में शिशु लिपटा
दूध पान मनुहार करे।
मृतक देह से सिसके लिपटा
मृत माँ कैसे पेट भरे।
भूख छीनती साँसे पल पल
प्रभु कैसा कोप उफनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
कोमल नन्हे बाल सलोने
घनी धूप तपती काया।
चले राह में भूख सताती
कैसी प्रभु रच दी माया।
निर्बल नयन नीर की धारा
मन दुविधा रोज पहनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
©®अनुराधा चौहान'सुधी'
चित्र गूगल से साभार
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (04-10-2020) को "एहसास के गुँचे" (चर्चा अंक - 3844) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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जी हार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteनिर्बल नयन नीर की धारा
ReplyDeleteमन दुविधा रोज पहनता।
पदचिह्न रक्त के राह बने
बढ़ी गली में निर्जनता।
हृदयस्पर्शी नवगीत सखी !
हार्दिक आभार सखी
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