Followers

Wednesday, September 23, 2020

बावरा मन

 
बावरा मन मूँद पलकें 
साँझ ढलती देखता है।
छा रहा है मौन कैसा
हर घड़ी ये सोचता है।
साँझ ने चादर समेटी 
चाँदनी झाँकी धरा पे।
चाँद ढलती देख काया
कह रहा पीड़ा जहाँ से
समय रहता न एक जैसा
क्यों डरे किसी बला से
जो जिया इक दिन मरेगा
लौट फिर आएगा वापस
रूप बदले रीत बदले
इक नया संसार पाकर
समय यह रुकता नहीं है
यह तो चलता है सदा से
बावरा मन मूँद पलकें
राज गहरे सोचता है
भोर भी होती रही है
साँझ भी ढलती रही
उम्र की परछाइयाँ भी
बनी औ बिगड़ती रही
नींद गायब है नयन से
पथ कंटीले ज़िंदगी के
सूनी पड़ी इन वादियाँ में
स्वप्न‌ निर्बल के पड़े हैं
झील के फिर अक्स जैसे
एक पल में वो मिटे थे
शूल से चुभते हृदय में
आह बन के वो बहे थे
देखता रहा मौन बैठा
यह उठा कैसा धुआँ था
हर तरफ है मौन पसरा
जीव भी हरपल डरा-सा
बावरा मन मूँद पलकें
साँझ ढलती देखता है
छा रहा है मौन कैसा
हर घड़ी ये सोचता है
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

3 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना ।

    ReplyDelete
  2. हार्दिक आभार आदरणीय

    ReplyDelete
  3. बावरा मन मूँद पलकें
    साँझ ढलती देखता है।
    छा रहा है मौन कैसा
    हर घड़ी ये सोचता है।
    बहुत ही सुंदर सृजन सखी ,सादर नमन आपको

    ReplyDelete