दूरियाँ दिल में बढ़ी है
रोज बढ़ते फासलों से।
बेवजह लिपटे रहे हम
झूठ के ही आँचलों से।
द्वेष का उठता धुआँ तब
रक्त बहता नीर बन के।
आँख से मरती शरम भी
खींच उठते चीर तन के।
पीर बरसे नीर बन फिर
व्यर्थ बढ़ते चोंचलों से।
दूरियाँ दिल...
सो रहे सब नींद कैसी
काल आकर के खड़ा है।
रोज होते देख झगड़े
जान के पीछे पड़ा है।
थरथराती है धरा भी
रोज आते जलजलों से।
दूरियाँ दिल...
भावनाएं रोज मरती
शब्द चुभते तीर जैसे।
जेब अपनी भर रहे हैं
छोड़ बैठे प्रीत कैसे।
व्यर्थ की बातें निकलती
बेवजह की अटकलों से।
दूरियाँ दिल...
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 12 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteभावनाएं रोज मरती
ReplyDeleteशब्द चुभते तीर जैसे।
जेब अपनी भर रहे हैं
छोड़ अपनी प्रीत कैसे।
व्यर्थ की बातें निकलती
बेवजह की अटकलों से।
दूरियाँ दिल...
बहुत सही
हार्दिक आभार आदरणीया
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 13 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी अवश्य, हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteयह दूरियाँ अब आधुनिकता का पर्याय है । अति सुंदर सृजन ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteहृदय को स्पर्श करती अत्यंत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Delete'बेवजह लिपटे रहे हम
ReplyDeleteझूठ के ही आँचलों से'... बहुत सुन्दर!