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Sunday, October 11, 2020

दूरियाँ


दूरियाँ दिल में बढ़ी है
रोज बढ़ते फासलों से।
बेवजह लिपटे रहे हम
झूठ के ही आँचलों से।

द्वेष का उठता धुआँ तब
रक्त बहता नीर बन के।
आँख से मरती शरम भी
खींच उठते चीर तन के।
पीर बरसे नीर बन फिर
 व्यर्थ बढ़ते चोंचलों से।‌
दूरियाँ दिल...

सो रहे सब नींद कैसी
काल आकर के खड़ा है।
रोज होते देख झगड़े
जान के पीछे पड़ा है।
थरथराती है धरा भी
रोज आते जलजलों से।
दूरियाँ दिल...

भावनाएं रोज मरती
शब्द चुभते तीर जैसे।
जेब अपनी भर रहे हैं
छोड़ बैठे प्रीत कैसे।
व्यर्थ की बातें निकलती
बेवजह की अटकलों से।
दूरियाँ दिल...
***अनुराधा चौहान'सुधी'***

10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 12 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. भावनाएं रोज मरती
    शब्द चुभते तीर जैसे।
    जेब अपनी भर रहे हैं
    छोड़ अपनी प्रीत कैसे।
    व्यर्थ की बातें निकलती
    बेवजह की अटकलों से।
    दूरियाँ दिल...
    बहुत सही

    ReplyDelete
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    1. हार्दिक आभार आदरणीया

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर मंगलवार 13 अक्टूबर 2020 को साझा की गयी है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी अवश्य, हार्दिक आभार आदरणीय

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  4. यह दूरियाँ अब आधुनिकता का पर्याय है । अति सुंदर सृजन ।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया

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  5. हृदय को स्पर्श करती अत्यंत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।

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  6. 'बेवजह लिपटे रहे हम
    झूठ के ही आँचलों से'... बहुत सुन्दर!

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