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Tuesday, April 9, 2019

मैं धर्म हूँ

मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
ज़ख्मी होकर आज पड़ा
अपनों के बीच अपने लिए 
लड़ रहा ज़िंदा रहने के लिए
भूल गए इंसानियत का धर्म
बने आज एक दूसरे के दुश्मन
हाँ मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
ना कोई माना ना कोई मानेगा
एकता थी वजूद मेरा 
बटा हुआ हूँ आज टुकड़ों में
जातियों के नाम पर
नफ़रत के पैग़ाम पर
अंतिम साँंस गिन रहा
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
मानता है जो मुझे
संवारता जो मुझे
प्रेम बांटता फिरे
उपेक्षित वो इस जहाँ में
अभिशप्त हो जी रहा 
मैं स्वयं के हाल पर
मानव की मानसिकता पर
द्रवित हो उठा आज
अश्रू बहाकर देखता
धरा से मिटते खुद को आज
मैं धर्म हूँ बेबस खड़ा
***अनुराधा चौहान***

16 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया ,यथार्थ ,सादर स्नेह सखी

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  2. यथार्थ !
    बेहतरीन प्रस्तुती

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  3. सत्य, सुन्दर रचना

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  4. वाह!!बेहतरीन!!

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  5. धर्म से ज्यादा उसका आडम्बर है आज ... इसके आवरण मिएँ सच कहाँ दिखाई देता है ...
    सार्थक रचना ...

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  6. सहृदय आभार ऋतु जी

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  7. बहुत ही सुंदर भावों का समायोजन सखी धर्म और मानव धर्म पर ।
    वाह रचना।

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  8. सही बात। धर्म आज बेबस है और अंतिम साँसें गिन रहा है। सिर्फ आडंबर बचे हैं।

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  9. धन्यवाद आदरणीय

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  10. बहुत सुन्दर... धर्म बेबस ही तो है धर्माचार्यों के चाल चलता बेचारा....

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