कर्म भूलता फिरता मानव
झूठ किए है सिर धारण
सत्य राह से विमुख हुआ तो
क्रोध बना है संहारण।
लेख विधाता का है पक्का
जो बोया है वो पाया।
सीख बुराई मन में पाले
सुख सारे ही खो आया।
चाल धर्म से अलग हुई तो
ज्ञान हुआ मन से हारण।
कर्म भूलता...
सहनशीलता दान धर्म से
तेज कर्ण सा चमका था।
जीवन की करनी जब बिगड़ी
पाप नाश बन धमका था।
भूल गया जब राह धर्म की
शुरू हुआ जीवन मारण।
कर्म भूलता....
आज मनुज की गलती सारी
मौत बनी अब डोल रही।
अनजाने ही क्रोध सहे फिर
ज्ञान चक्षु को खोल रही।
हतप्रभ हो सब जगती बैठी
दोष आज हर ले तारण।
कर्म भूलता....
भाई भाई का बैरी बन
एक दूजे पर वार करें।
रक्त धरा पे बहे नदी सा
मन में सबने द्वेष भरे।
चक्र फँसा सब मंत्र भूलता
लगा शाप या गुरु कारण।
कर्म भूलता......
अनुराधा चौहान'सुधी' स्वरचित✍️
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१४-१०-२०२१) को
'समर्पण का गणित'(चर्चा अंक-४२१७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हार्दिक आभार सखी
Deleteवर्तमान हालातों का सजीव चित्रण
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteभाई भाई का बैरी बन
ReplyDeleteएक दूजे पर वार करें।
रक्त धरा पे बहे नदी सा
मन में सबने द्वेष भरे।
चक्र फँसा सब मंत्र भूलता
चढा शाप या गुरु कारण।
कर्म भूलता......
याथर्थ को बयां करती बहुत ही सरहनीय रचना!
हार्दिक आभार मनीषा जी।
Deleteबहुत सुंदर सृजन सखी ।
ReplyDeleteकर्ण के माध्यम से आज के यथार्थ पर भी सटीक रचना। सुंदर सहज काव्य लेखन।
सस्नेह।
हार्दिक आभार सखी।
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