आग पेट की आज जलाए
कलह मचाकर अति दुखदायन।
संतोष मिटा मेटे खुशियाँ
भूख बनी है ऐसी डायन।
चूल्हे खाली हांडी हँसती
अंतड़ियाँ भी शोर मचाए।
तृष्णा सबके शीश चढ़ी फिर
शहरी जीवन मन को भाए।
समाधान से दूर भागते
चकाचौंध के डूब रसायन।
आग....
बंजर होती मन की धरती
विपदा जब-तब खेत उजाड़े
प्रलोभनों के बीज उगी अब
खरपतवारें कौन उखाड़े
माटी की सब भीतें ढहती
आँगन आज नहीं सुखदायन।
आग..
खलिहानों की सिसकी सुनकर
रहट नहीं आवाजें देता।
कर्ज कृषक की खुशियाँ छीने
झोली अपनी भरते नेता।
दुख हरने जीवन के सारे
कब आओगे हे नारायण
आग...
बैलों की घण्टी चुप बैठी
दिखता नहीं बजाने वाला।
अंगारों पर बचपन सोता
गले पहन काँटो की माला।
सूखी माटी पर हल चीखें
कोई रोके ग्राम पलायन।
आग....
©® अनुराधा चौहान'सुधी'✍️
चित्रकार-रेणु रंजन गिरी
सच , पेट की आग ही तो पलायन पर मजबूर कर देती है ।
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील
हार्दिक आभार आदरणीया।
Deleteअंगारों पर बचपन सोता
ReplyDeleteगले पहन काँटो की माला।
सूखी माटी पर हल चीखें
कोई रोके ग्राम पलायन।
मर्मस्पर्शी सृजन अनुराधा जी !
हार्दिक आभार सखी।
Deleteबहुत बहुत सुंदर रचना दीदी
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार
Deleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (19-07-2021 ) को 'हैप्पी एंडिंग' (चर्चा अंक- 4130) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। रात्रि 12:01 AM के बाद प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
हार्दिक आभार आदरणीय।
Deleteग्रामीण जीवन का सजीव चित्रण
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ.अनीता जी।
Deleteसुंदर सृजन...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आ.संदीप जी।
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