सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
छायादार विटप मिटा रहा
मानव पिए स्वार्थ की हाला।
भूकंप,बाढ़,काल खड़ा है
प्रलय सुनाए अपनी आहट।
तरुवर मिटते फटती धरती
बढ़ती जाती मन अकुलाहट।
रोज नया रोग जन्म लेता
कैसा है ये गड़बड़ झाला?
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
जीव-जंतु की जीवनदात्री
वसुधा ही सब में प्राण भरे।
पाषाण हृदय के मानव ही
माँ को आभूषण हीन करे।
सोच रही है आज धरा भी
दिया दूध का जिसको प्याला।
करते हैं विद्रोह वही क्यों?
उम्मीदों ने जिनको पाला।
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
कुंठित मन में मैल भरा है
जग अंगारों के मुख बैठा।
मानव मानवता का बैरी
रहता है हरदम ही ऐंठा।
ऊपर से उजियारा दिखता
भीतर मन का है अति काला।
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
कुंठित मन में मैल भरा है
ReplyDeleteजग अंगारों के मुख बैठा।
मानव मानवता का बैरी
रहता है हरदम ही ऐंठा।
ऊपर से उजियारा दिखता
भीतर मन का है अति काला।
सुलग उठी है आज धरा भी
हृदय पीर की धधकी ज्वाला।
--- आज के हालातों की सटीक बानगी
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में गुरुवार 23 जुलाई 2020 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteसादर नमस्कार,
ReplyDeleteआपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार( 24-07-2020) को "घन गरजे चपला चमके" (चर्चा अंक-3772) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
हार्दिक आभार सखी
Deleteवर्तमान समय का यथार्थ चित्रण सखी।बहुत ही सराहनीय सृजन।
ReplyDeleteसादर
हार्दिक आभार सखी
DeleteSach kaha 🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर ओज़ से भरी लाजवाब रचना है ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
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