Followers

Saturday, October 5, 2019

बीत गए बरसों

यादों की बदली-सी छाई
ख्व़ाबों में दिखी इक परछाई
आँखों में अश्रु थिरकने लगे
मन के भावों ने ली अंगड़ाई

हलचल-सी मची सीने में 
रिश्तों की महक संग ले आई
कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें
याद आईं कुछ बीती बातें

अमराई की सौंधी खुशबू
ज़ेहन में सरसों फूल उठी
रेहट की खट-पट, खट-पट
बैलों के घुंघरू की गूँज उठी

मटके की थाप पे थिरक उठे
पर्दे में छिपे गोरे मुखड़े
पायल की मधुर रुनझुन-रुनझुन
चूड़ियों से खनकते घर के कोने

पर्दे, घुंघरू,रेहट,सरसों
बीत गए इन्हें देखे बरसों
सब चारदीवारी में सिमट गए
पत्थरों के शहर में जो बस गए
***अनुराधा चौहान*** 

22 comments:

  1. बेहतरीन रचना

    ReplyDelete
  2. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 06 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार यशोदा जी

      Delete
  3. बहुत सुंदर सृजन है सखी पुरानी यादों की और ले जाती अभिव्यक्ति।
    वाह।

    ReplyDelete
  4. "पर्दे, घुंघरू,रेहट,सरसों
    बीत गए इन्हें देखे बरसों
    सब चारदीवारी में सिमट गए
    पत्थरों के शहर में जो बस गए"


    सच कहा अनुराधा जी. . शहरीकरण ने गांव की आबो हवा को कहीं गायब ही कर दिया, सब कुछ यादें बनकर रह गया

    बहुत सुन्दर रचना 🙏

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार अश्विनी जी

      Delete
  5. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    ७ अक्टूबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार श्वेता जी

      Delete
  6. जी नमस्ते,


    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (07-10-2019) को " सनकी मंत्री " (चर्चा अंक- 3481) पर भी होगी।


    ---

    रवीन्द्र सिंह यादव

    ReplyDelete
  7. बेहतरीन सृजन अनुराधा जी ।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार मीना जी

      Delete
  8. पर्दे, घुंघरू,रेहट,सरसों
    बीत गए इन्हें देखे बरसों
    सब चारदीवारी में सिमट गए
    पत्थरों के शहर में जो बस गए

    पत्थरों के शहर में यही सच है.
    बहुत सुन्दर

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार कविता जी

      Delete
  9. मटके की थाप पे थिरक उठे
    पर्दे में छिपे गोरे मुखड़े

    कभी कभी घूँघट भी बड़ा मनमोहक लगता हैं ,गांव की सोंधी खुसबू बिखेरत सुंदर रचना सखी

    ReplyDelete
  10. वाह बहुत खूब लिखा आपने सखी।कुछ बातें अब बीता -सी लगती है।

    ReplyDelete
  11. इन पत्थरों के घरों की कैद से निकल कर जीवन का आनद है ... असली स्वाद है ...
    यथार्थ लिखा है ...

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार आदरणीय

      Delete
  12. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    २ नवंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।,

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक आभार श्वेता जी

      Delete