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Friday, March 4, 2022

लोभ


काँपते हैं देख कानन
मानवों की भीड़ को।
रोपते तरु काट नित वो
पत्थरों के चीड़ को।

 नित नए आकार लेता   
लोभ का गहरा कुआँ।
घुट रही हर श्वास धीरे
डस रहा जहरी धुआँ।
हँस रहे हैं कर्म दूषित
देख बढ़ती बीड़ को।
काँपते हैं देख....

 भ्रष्ट चलकर झूठ के पथ
नित नई सीढ़ी चढ़े।
धर्म आहत सा पड़ा अब
पाप पर्वत सा बढ़े।
सत्य लड़ने को पुकारे
घटती हुई छीड़ को।
काँपते हैं देख....

छटपटाती श्वास तन में
बाग पथरीले पड़ी।
हँस रही अट्टालिकाएँ
हाल पर उनके खड़ी।
बन पखेरू प्राण उड़ते
जा रहे तज नीड़ को।
काँपते हैं देख....

*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*
चित्र गूगल से साभार
छीड़-मनुष्य के जमघट की कमी।
बीड़- एक पर एक रखे सिक्कों का थाक।


6 comments:

  1. Replies
    1. हार्दिक आभार आदरणीय।

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  2. छटपटाती श्वास तन में
    बाग पथरीले पड़ी।
    हँस रही अट्टालिकाएँ
    हाल पर उनके खड़ी।
    बन पखेरू प्राण उड़ते
    जा रहे तज नीड़ को।
    काँपते हैं देख....बहुत सुंदर सराहनीय रचना ।

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    Replies
    1. हार्दिक आभार जिज्ञासा जी

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  3. आदरणीया अनुराधा जी, आपने बहुत बड़े सच को अपनी इस कविता द्वारा उजागर किया है। ये लाजवाब पंक्तियाँ:
    नित नए आकार लेता
    लोभ का गहरा कुआँ।
    घुट रही हर श्वास धीरे
    डस रहा जहरी धुआँ।
    हँस रहे हैं कर्म दूषित
    देख बढ़ती बीड़ को।
    काँपते हैं देख....
    साधुवाद!--ब्रजेंद्रनाथ

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  4. हार्दिक आभार आदरणीय।

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