थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।
चपल दामिनी चमक चमक कर
क्या जाने किसे निहारे।
भीगा आँचल आज धरा का
राग छेड़ती पुरवाई।
महकी महकी सुगंध माटी
संग समेटे ले आई।
टापुर टुपुर साज छेड़ रही
शीतल जल भरी फुहारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।
धानी चूनर अंग लपेटी
वसुंधरा श्रृंगार किए।
झुलस रही थी कबसे प्यासी
शीतल जल की आस लिए।
महक उठे वन उपवन जीवन
बदली से ओझल तारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।
निर्झर झर-झर झरे गिरी से
ताल तलैया मुस्काते।
हुआ सुहाना मौसम प्यारा
सावन-भादो मन भाते।
नदियाँ बहती उफन-उफन के
मचल रहे सागर खारे।
थिरक उठी बरखा की बूँदे
झूम रहे हैं तरु सारे।
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार
बहुत सुन्दर चित्रण बरखा के आगमन का 👌👌👌👌एक पंक्ति बारिश की बूदों सी छटा बिखेरती 👏👏👏
ReplyDeleteहार्दिक आभार पूजा 🌹
Deleteअति सुन्दर।
ReplyDeleteहार्दिक आभार दी🌹
Deleteहार्दिक आभार आदरणीया 🌹
ReplyDeleteहार्दिक आभार
ReplyDeleteधरती पर बारिश की बूंदों का पड़ना किसी त्यौहार से कम नहीं है ,अद्भुत ,बहुत ही सुंदर रचना, बधाई हो
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