नेत्र खोल के जाग साँवरे
अब धीरज टूटा जाए।
मानवता का दुश्मन सोचे
कब मानव लूटा जाए।
नजर गिद्ध सी लिए गली में
निर्बल पर करते वार।
अपनों से अपनों को मिलती
हरदम धोखे भरी मार।
जात-पात का झगड़ा-टंटा
अब सिर ही फूटा जाए।
मानवता का दुश्मन सोचे
कब मानव लूटा जाए।
नेत्र खोल के……
रिश्ते सारे देख टूटते
प्रीत सिसकती कोने में।
बना बुढ़ापा भी बीमारी
जीवन बीते रोने में।
देख दिखावे के भ्रम में ही
पथ सच का छूटा जाए।
मानवता का दुश्मन सोचे
कब मानव लूटा जाए।
नेत्र खोल के……
नफ़रत की आग लगी मन में
सतयुग त्रेता भूल गए।
द्वापर सा रास दिखता नहीं
बंशी की धुन भूल गए।
बचा नहीं अब भाईचारा
भाई को लूटा जाए।
मानवता का दुश्मन सोचे
कब मानव लूटा जाए।
नेत्र खोल के……
©® अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित ✍️
चित्र गूगल से साभार
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५-०३-२०२१) को 'निसर्ग महा दानी'(चर्चा अंक- ३९९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
हार्दिक आभार सखी
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ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर व दिव्य भावों से ओतप्रोत मुग्ध करती कविता,
हार्दिक आभार आदरणीय
Deleteनेत्र खोलने से ही क्या होगा ? अब तो तुमको आना होगा सब कुछ संवारने . अच्छी प्रस्तुति .
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीया
Deleteसुंदर सृजन सखी,सादर नमन
ReplyDeleteहार्दिक आभार सखी
Deleteसुंदर विनती सांवरे को बुलाने की । मन मोहती रचना..
ReplyDeleteहार्दिक आभार जिज्ञासा जी
Deleteबहुत बहुत सुंदर सृजन सखी।
ReplyDeleteयथार्थ को दर्शाता।
बहुत भावपूर्ण रचना है ...
ReplyDeleteहार्दिक आभार आदरणीय
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