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Wednesday, June 23, 2021

सूने होते आले


 कुण्डी मन के द्वार लगाकर
सींच रहे घर का आँगन
प्रेम नगरिया सूनी होती
राह निहारे मन आनन।

भीत टटोले सबके मुखड़े
मौन लगाता है जाले।
कभी सजी थी खुशियाँ जिसमें
सूने दिखते वो आले।
अम्बर देख बहाए आँसू
खिला धरा पे पत्थर वन।
प्रेम नगरिया……

झाँक घरों में चंदा पूछे
कहाँ छुपी है मानवता।
क्रोध दामिनी का फिर फूटा
देख आज की दानवता।
जीवन काँप रहा है थर-थर
छोड़ प्राण भी भागे तन।
प्रेम नगरिया……

कंक्रीटों के बाग लगाकर
ढूँढ रहे सब हरियाली।
विष पीकर अब मीठे होते
फल लटके तरु की डाली। 
कण्टक के तरुवर को सींचा
पुष्प महकता कब उपवन।
प्रेम नगरिया……

*अनुराधा चौहान'सुधी'स्वरचित*

27 comments:

  1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  2. कुण्डी मन के द्वार लगाकर
    सींच रहे घर का आँगन
    प्रेम नगरिया सूनी होती
    राह निहारे मन आनन।

    वाह!!

    सादर

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  3. बहुत सुन्दर ...
    सच है मन रीता हो, बन्द हो किवाड़ तो सूनापन रह जाता है ... आत्मसात सबको करना जरूरी है ...

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  4. बहुत सुन्दर वर्णन

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    1. हार्दिक आभार प्रीति जी।

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  5. कंक्रीटों के बाग लगाकर
    ढूँढ रहे सब हरियाली।

    बिलकुल सत्य कहा सखी,सुंदर सृजन

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  6. झाँक घरों में चंदा पूछे
    कहाँ छुपी है मानवता।
    क्रोध दामिनी का फिर फूटा
    देख आज की दानवता।
    जीवन काँप रहा है थर-थर
    छोड़ प्राण भी भागे तन।
    प्रेम नगरिया……


    बहुत सुन्दर....

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    1. हार्दिक आभार विकास जी।

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  7. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (२७-0६-२०२१) को
    'सुनो चाँदनी की धुन'(चर्चा अंक- ४१०८ )
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  8. कंक्रीटों के बाग लगाकर
    ढूँढ रहे सब हरियाली।
    विष पीकर अब मीठे होते
    फल लटके तरु की डाली।

    बहुत सुंदर रचना 🙏

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    1. हार्दिक आभार आ. शरद जी।

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  9. कुण्डी मन के द्वार लगाकर
    सींच रहे घर का आँगन
    प्रेम नगरिया सूनी होती
    राह निहारे मन आनन।
    बहुत सुन्दर रचना

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया

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  10. रचना तो सुन्दर है ही परन्रतु चना के साथ आपने जो फोटो लगाई है उसने मन मोह लिया जैसे बन्दिशों के अंदर से फूटते आजादी के अंकुर 😊

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  11. बहुत सुंदर गहन भाव लिए अभिनव सृजन सखी।
    अप्रतिम।

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  12. बहुत ही सुंदर सृजन।
    सादर

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  13. कंक्रीटों के बाग लगाकर
    ढूँढ रहे सब हरियाली।
    विष पीकर अब मीठे होते
    फल लटके तरु की डाली।
    कण्टक के तरुवर को सींचा
    पुष्प महकता कब उपवन
    वाह!!!
    बहुत ही सुन्दर सामयिक नवगीत।

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  14. गहन भाव से रची सुंदर रचना ।

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    1. हार्दिक आभार आदरणीया।

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