कीट के जैसी ज़िंदगी
जीने को हैं मजबूर
पल-पल गरल गरीबी का
पीने को हैं मजबूर
जूतों तले मसल जाते हैं
पल भर में उनके सपने
देखा जाता उन्हें हर कोण से
हिकारत भरी निगाहों से
लोगों के दृष्टिकोण की
फिर भी परवाह नहीं करते
मेहनत-मजदूरी करके
जीवन अपना निर्वाह हैं करते
तन पे नहीं सजता कभी
नया कपड़ा त्यौहारों में
सिल-सिल कर पहना जाता
पैबंद नया झलक जाता
सुलझाने में लगे रहते हैं
उलझनें अपने जीवन की
उलझन बंधु बनकर बैठी
ज़िंदगी जहन्नुम बन बैठी
फिर भी जी रहे हैं जीवन
हर पल बस एक आस में
शायद भविष्य लेकर आए
आने वाला कल सुनहरा
***अनुराधा चौहान***
चित्र गूगल से साभार