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Friday, October 25, 2019

गरल गरीबी का

कीट के जैसी ज़िंदगी
जीने को हैं मजबूर
पल-पल गरल गरीबी का
पीने को हैं मजबूर
जूतों तले मसल जाते हैं
पल भर में उनके सपने 
देखा जाता उन्हें हर कोण से
हिकारत भरी निगाहों से
लोगों के दृष्टिकोण की
फिर भी परवाह नहीं करते
मेहनत-मजदूरी करके
जीवन अपना निर्वाह हैं करते
तन पे नहीं सजता कभी
नया कपड़ा त्यौहारों में
सिल-सिल कर पहना जाता
पैबंद नया झलक जाता
सुलझाने में लगे रहते हैं
उलझनें अपने जीवन की
उलझन बंधु बनकर बैठी
ज़िंदगी जहन्नुम बन बैठी
फिर भी जी रहे हैं जीवन
हर पल बस एक आस में
शायद भविष्य लेकर आए
आने वाला कल सुनहरा 
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Tuesday, October 22, 2019

दीप

🕯️
है
लघु
दीपक
तम हर
रौशन घर
दीपावली पर्व
जगमग देहरी
🕯️
ये
पर्व
दिवाली
ज्ञानज्योति
मिटा अंधेरा
अमावस रात
दीपक प्रज्वलित
🕯️
दे
हर्ष
त्यौहार
मिटा तम
दीपक द्वार
प्रकाशित मन
दीवाली का आरंभ

अनुराधा चौहान 

Friday, October 18, 2019

दफ़न हो जाते सपने

काँधे पर अनगिनत
फरमाइशों का बोझ
चिंता में तिल-तिल जलते
और धुआँ होती ख्वाहिशें
दफ़न हो जाते सपने 
दिन-रात यही सोच-सोचकर
कैसे हो सबके पूरे सपने
पिता के लिए नई लाठी
माँ का टूटा चश्मा
गुड़िया बैठी दरवाजे पर
आज आएगा नया बस्ता
एक नया पैबंद झलक उठा
मुस्काती पत्नी की साड़ी में
दिन भर भीगता रहा यह सोच
छतरी लूँगा अबकी बारिश में
खत्म हो गई मुन्ने की दवाई
कमर तोड़ रही यह महंगाई
हर बार होती यही कोशिश
इस बार होंगे सपने पूरे
समस्या रहती वहीं के वहीं
मिलता नहीं समाधान कोई
अरमान हर बार जल जाते 
छुप जाते आँसू भी धुएं में
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Monday, October 14, 2019

जल बिन तड़पती मीन

कुछ पलछिन नैनों में बसे
कुछ भीतर-बाहर भाग रहे
कुछ अलमारी में छुप बैठे
कुछ मेरी खुली किताब बने

कुछ कब सावन की बन बदरी
नयनों से बरसकर चले गए
कुछ जेठ की तपती धूप से
दिन-रात जलाते मन की नगरी

कुछ सूख-सूख कर चटक रहे
ज्यों धूप से चटकती धरती हो
कुछ हवाओं संग कर इतराते
जैसे पुरवाई मुझसे जलती हो

नयनों को मेरे आराम नहीं
दिन-रात देख रहे रस्ता तेरा
आजा ओ परदेशी कहीं से
क्या भूल गया तू प्यार मेरा

बुझने लगी जीवन की बाती
जीवन के दीप जलाने जा
कुछ भूली-बिसरी यादें बची हों
उन यादों के साथ में आजा

पूनम का चाँद देख मुझे
कुछ मुरझाया सा रहता है
हर वक़्त मेरी आँखों में
अब तेरा ही साया रहता है

चाँदनी सहलाकर कहती
क्यों रहती हो खोई-खोई
कुछ प्रीत के गीत सुना दे मुझे
मेरी न सखी-सहेली कोई

कैसे कहूँ अब तुम बिन मेरे
सजते नहीं हैं सुर कोई
बिखर गई जीवन से सरगम
मैं जल बिन तड़पती मीन कोई

मैं दुखियारी किस्मत की मारी
जिसकी क़िस्मत ने ही षड़यंत्र रचे
मृग मरीचिका-सी खुशियाँ देखकर
दिल ने कांँटो भरे यह मार्ग चुने
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Friday, October 11, 2019

प्रेम के मुखौटे

दिखावटी प्रेम के ओढ मुखौटे
झूठ मुलाकातों के सिलसिले चले
संवेदनाएं कहीं गुम सी होती
बातों में मिसरी सा स्वाद घुले

शर्तो के अनुबन्ध पर बंधे हर रिश्ता
पल मे अपना कभी पल में पराया
प्रेम की बदलती हुई परिभाषा
प्रेम त्याग भूल बस पाने की आशा

प्रेम में पथ पर छल के उजाले
भटकाते अँधेरों में मन भोले-भाले
फिर भी दिखावा कम नहीं होता
दिखावे में प्यार कहीं गुम होता

बेवजह होते झगड़े भरपूर
बिगाड़े हमेशा रिश्तों के रूप
बंजर होती भावनाएं मन की
खिलते कहाँ मनचाहे  फूल

कपट के शूलों की नित्य चुभन से
रिश्ते लथपथ बेहाल पड़े
प्रीत पहले सी नजर न आती
शर्तों में ज़िंदगी अब बंधना नहीं चाहती
***अनुराधा चौहान***

चित्र गूगल से साभार

Saturday, October 5, 2019

बीत गए बरसों

यादों की बदली-सी छाई
ख्व़ाबों में दिखी इक परछाई
आँखों में अश्रु थिरकने लगे
मन के भावों ने ली अंगड़ाई

हलचल-सी मची सीने में 
रिश्तों की महक संग ले आई
कुछ खट्टी कुछ मीठी यादें
याद आईं कुछ बीती बातें

अमराई की सौंधी खुशबू
ज़ेहन में सरसों फूल उठी
रेहट की खट-पट, खट-पट
बैलों के घुंघरू की गूँज उठी

मटके की थाप पे थिरक उठे
पर्दे में छिपे गोरे मुखड़े
पायल की मधुर रुनझुन-रुनझुन
चूड़ियों से खनकते घर के कोने

पर्दे, घुंघरू,रेहट,सरसों
बीत गए इन्हें देखे बरसों
सब चारदीवारी में सिमट गए
पत्थरों के शहर में जो बस गए
***अनुराधा चौहान*** 

Friday, October 4, 2019

साँसों की सरगम

मन वीणा के तार हो तुम
धड़कन की आवाज़ हो तुम
तुमसे ही यह ज़िंदगी है
जीवन का हर साज हो तुम

मुरझाया मन का रजनीगंधा
खिल उठा जो तूने छुआ
स्पर्श के एहसास से भींगे
खुशियों के हर रंग हो तुम

रोम-रोम तुमसे ही महके
तुमसे ही यह जीवन चहके
साँसों की सरगम तुमसे
जीवन का हर गीत हो तुम

तुम मेरे मन के दर्पण हो
तुझमें ही मेरा अक्स घुला
झील के ठहरे पानी में
चाँद का प्रतिबिंब हो तुम
***अनुराधा चौहान***