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Sunday, July 29, 2018

बस्ती नहीं बसती

जब उजड़ती है कोई बस्ती
तो बस्ती नहीं बसती
इतिहास बन जाती है
दफन हो जातीं हैं
सदा के लिए
मिट जाते निशां उनके
बन जाती हैं वहां इमारतें
बिखर जाते हैं आशियां
जहां बसती थी खुशियां
समेट कर बिखरे सपनों को
चल देते हैं बेघर बेसहारा
आंखों में नमी लिए
इक नई मंजिल की ओर
एक नई आस के साथ
कभी तो होगी कोई भोर
कभी तो होगा जीवन में उजाला
कभी तो कोई बसेरा मिलेगा
जो उनका अपना होगा
फिर बसाते है नई बस्ती
जानते हैं यह सच भी
जब तक गरीबी उनमें बसती
तब तक कोई बस्ती नहीं बसती
रेत के घरोंदें सी उनकी बस्ती
आज बनी तो कल है मिटती
***अनुराधा चौहान***


11 comments:

  1. बहुत मार्मिक रचना। सार्थक विषय जिसे बहुत अच्छे से लिखा लेखनी ने।

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    1. बहुत बहुत आभार नीतू जी

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  2. बेहतरीन मार्मिक पर कटु सत्य ....मानो जीवन का सार बताती बस्ती जैसी जिंदगी आज खड़ी कल बिखरी जाती ! ! ! ! ! बेहतरीन अनुराधा जी कहीं गहरी उतर गई सखी

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद इंदिरा जी आपकी सार्थक प्रतिक्रिया के लिए 🙏

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  3. बहुत मार्मिक रचना , गहरे भाव ... बधाई अनुराधा जी

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपका 🙏🙏

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  4. अंतर को छूती सार्थक रचना।
    बस बस उजड़ते रहते कच्चे आशियाने
    यायावर सी जिंदगी के क्या ठिकाने।।

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  5. कटु सत्य....सुंदर भावपूर्ण प्रस्तुति..

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  6. भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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