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Friday, August 7, 2020

करम का लेखा

छप्पर फाड़ मिले धन भारी
यही सोच सपनों में खोया।
कनक नदी कल-कलकर बहती
रत्न खेत में जमकर बोया।

धन वैभव के सपने पाले।
आसमान पर उड़ता ऐंठा।
आँख खुली तो गिरा धरातल 
कंटक झाड़ी पे आ बैठा।
नीलांबर से धूल चाटता
टूटे पंख पखेरू रोया।
छप्पर............. खोया।

चढ़ी सुनहरी ऐनक आँखों
कर्म धूप का तेज न देखा।
हाथ पसारे आज खड़ा जब
रोया देख करम का लेखा।
टूटी किश्ती लिए भँवर में
जीवन अपना आज डुबोया।
छप्पर....…........ खोया।

बात बड़ी करनी अति छोटी
चने झाड़ पर चढ़ इतराया।
दो पैसे खीसे में लेकर
रुपए भर का रौब जमाया।
हवा भरे गुब्बारे उड़ता
शूल नियति ने आन चुभोया।
छप्पर....…........ खोया
***अनुराधा चौहान'सुधी'***
चित्र गूगल से साभार

9 comments:

  1. बात बडी करनी अति छोटी बहुत खुब जी नमन

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  2. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा सोमवार (10 अगस्त 2020) को 'रेत की आँधी' (चर्चा अंक 3789) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्त्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाए।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    --
    -रवीन्द्र सिंह यादव

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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  3. ''आँख खुली तो गिरा धरातल, कंटक झाड़ी पे आ बैठा।

    नीलांबर से धूल चाटता टूटे पंख पखेरू रोया''

    वाह ! बहुत खूब

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  4. सुन्दर रचना

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  5. करम इस लेखे को कौन बदल पाया है अब तक ... जो है इसे जीना ही होता है ...

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    1. हार्दिक आभार आदरणीय

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