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Tuesday, November 20, 2018

खो गई हंसी

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जिनकी शरारतों से
गूंजती थी हर गली
आज किताबों के बोझ तले
खो गई उनकी हंसी

शरारतें उनकी करती थी
हमको हंसने पर मजबूर
आज अकेले रहते रहते
खुद गए हंसना भूल

रिश्तों की बगिया में कभी
खिलता था बच्चों मन
आज शरारत कैसे करें
सूना है उनका बचपन

अब बैठना सीखते ही
बालवाड़ी की ओर चले
मां-बाप बिचारे अॉफिस में
वो आया की गोद में पले

घर में बंद,स्कूल में बंद
बंधा-बंधा उनका जीवन
शरारतें करने बैठे तो
कैसे पढ़ाई में आएं अव्वल

बदलते हैं तौर तरीके
बचपन उनका महकाते हैं
साथ उनके बच्चे बन कर 
हम भी शरारत करते हैं
***अनुराधा चौहान***

8 comments:

  1. सार्थक रचना सखी यथार्थ है ये बचपन ही नही रहा बच्चों के पास ।

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  2. बिल्कुल सही जी
    बहुत ही सुंदर रचना।

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  3. हमने ही बाँध दी है उनकी हंसी ...
    लाड दिया है कन्धों पे बस्तों का बोझ ... सच है हमें ही उतारना है ये बोझ उनका ...

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  4. सचमुच बचपन को कितना बोझिल कर दिया पुस्तकों के बोझ और अकेलेपन ने | कुछ तो ऐसा करना दरकार है जो ये बेहाल बचपन मुस्कुरा उठे | सार्थक रचना प्रिय अनुराधा जी |

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद रेनू जी

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