झेले हैं कई मौसम
जीवन के कई रंग भी देखे
पर एक रंग नफ़रत का
मैं सह नहीं पाया
बारिश की इन फुहारों में
गूंजती थी यह गलियां
इस घर के लोगों से
आज सूनी हैं राहें
कोई नज़र नहीं आता
बेरंग से हो गए
अब सारे नजारे
घाटियां भी चीखती हैं
अपने हालातों पर
कभी सजती थी महफिलें
मेरे घर के आंगन में
बनते थे पकवान
सुगंध समाती थी दिवारों में
अब न तीज है न त्यौहार है
बस एक सूनापन है
काश कोई लौटा देता
जो मेरा गुज़रा हुआ कल है
***अनुराधा चौहान***
बहुत खूब अनुराधा जी
ReplyDeleteबस यादें राह जाती हैं,काश कोई लौट पाता गांव के उस पुराने घर में रौनक।
सुंदर लिखा हैं
घाटियां भी चीखती हैं
अपने हालातों पर
बहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद मीना जी
Deleteअति सुंदर
ReplyDeleteधन्यवाद आदरणीय
Deleteजी नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ५ नवंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
धन्यवाद श्वेता जी मेरी रचना को स्थान देने लिए
Deleteबहुत खूब सखी
ReplyDeleteधन्यवाद सखी
Deleteनफ़रत की जड़ें उगने से पहले काट देनी चाहिए ... नहीं तो विश फैलने में देर नहीं होती ...
ReplyDeleteजी सही कहा आपने धन्यवाद आदरणीय
Deleteबहुत ही सुन्दर....
ReplyDeleteधन्यवाद सुधा जी
Deleteगम का साया सा लहराया ...
ReplyDeleteउत्तम शब्द सामर्थ्य।
सुंदर रचना ।
वाह बहुत सुंदर
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