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Friday, November 2, 2018

गुजरा हुआ कल

झेले हैं कई मौसम
जीवन के कई रंग भी देखे
पर एक रंग नफ़रत का
मैं सह नहीं पाया
बारिश की इन फुहारों में
गूंजती थी यह गलियां
इस घर के लोगों से
आज सूनी हैं राहें
कोई नज़र नहीं आता
बेरंग से हो गए
अब सारे नजारे
घाटियां भी चीखती हैं
अपने हालातों पर
कभी सजती थी महफिलें
मेरे घर के आंगन में
बनते थे पकवान
सुगंध समाती थी दिवारों में
अब न तीज है न त्यौहार है
बस एक सूनापन है
काश कोई लौटा देता
जो मेरा गुज़रा हुआ कल है
***अनुराधा चौहान***

16 comments:

  1. बहुत खूब अनुराधा जी
    बस यादें राह जाती हैं,काश कोई लौट पाता गांव के उस पुराने घर में रौनक।
    सुंदर लिखा हैं

    घाटियां भी चीखती हैं
    अपने हालातों पर

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    1. बहुत बहुत आभार आदरणीय

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक ५ नवंबर २०१८ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

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    1. धन्यवाद श्वेता जी मेरी रचना को स्थान देने लिए

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  3. नफ़रत की जड़ें उगने से पहले काट देनी चाहिए ... नहीं तो विश फैलने में देर नहीं होती ...

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    1. जी सही कहा आपने धन्यवाद आदरणीय

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  4. बहुत ही सुन्दर....

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  5. गम का साया सा लहराया ...
    उत्तम शब्द सामर्थ्य।
    सुंदर रचना ।

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  6. वाह बहुत सुंदर

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