कुछ मुलाकातों का सिलसिला चला
कुछ बातों का सिलसिला चला
कुछ कदम हम साथ चले
संग कुछ मीठे एहसास चले
वक्त फिसलता गया रेत सा
रह गए मन के जज़्बात दबे
न तुम बोले न हमने कहा
रह गए मन में ख्बाव दबे
कुछ तो कहते मैं हैं सुन लेती
संग तेरे सपने बुन लेती
कर लेती मै तेरा इंतज़ार
संग जीने का वादा करते
अब तक यह मै जान न पाई
क्यों ओढ़ ली थी तूने तन्हाई
या कसक कोई थी जो दिल में दबी
कह देते जो बात अनकही थी
कुछ तो अपना माना होता
दिल का हाल बताया होता
शायद कुछ गम मै ले लेती
तुझको अपनी खुशियां दे देती
दे गए दर्द तुम अनजाने में
या मैंने भूल की पहचानने में
रह गई दिल की दिल में दबी
बातें थी कुछ अनकही सी
***अनुराधा चौहान***
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (31-10-2018) को "मंदिर तो बना लें पर दंगों से डर लगता है" (चर्चा अंक-3141) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत बहुत आभार राधा जी
Deleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteनमस्ते,
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति BLOG "पाँच लिंकों का आनंद"
( http://halchalwith5links.blogspot.in ) में
गुरुवार 1 नवम्बर 2018 को प्रकाशनार्थ 1203 वें अंक में सम्मिलित की गयी है।
प्रातः 4 बजे के उपरान्त प्रकाशित अंक अवलोकनार्थ उपलब्ध होगा।
चर्चा में शामिल होने के लिए आप सादर आमंत्रित हैं, आइयेगा ज़रूर।
सधन्यवाद।
बहुत बहुत आभार आदरणीय
Deleteबहुत कसक है, बहुत तड़प है, आपकी इस कविता में अनुराधा जी.
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना अनुराधा जी।
ReplyDeleteहृदय के भावों को शब्द देकर सुंदर शिल्पकारी..👌
बहुत बहुत धन्यवाद श्वेता जी
Deleteधन्यवाद अमित जी
ReplyDeleteअनुराधा जी बहुत ही मर्मस्पर्शी अल्फाजों में पिरोया है आपने
हृदय स्पर्शी कसक लिये शानदार रचना अनुराधा जी ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी
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